________________ आगम निबंधमाला जिसका मन संसार में, संसार के राग रंग में उलझा होता है उन्हें ही मत्यु भयंकर जान पड़ती हैं, परंतु जिनकी अन्तरात्मा सम्यग्ज्ञान और वैराग्य से वासित होती है, उनके लिए वह मत्यु आनंद का कारण बन जाती है / साधक की विचारणा तो विलक्षण प्रकार की होती है / वह विचार करता है - कृमिजालशताकीणे, जर्जरे देहपंजरे / / भिद्यमाने न भेतव्यं, यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः / सैकड़ों कीड़ों के समूहों से व्याप्त शरीर रुपी पीजरे का नाश होता है तो भले हो / इसके विनाश से मुझे भयभीत होने की क्या आवश्यकता है / इससे मेरा क्या बिगड़ता है / यह जड़ शरीर मेरा नहीं है / मेरा असली शरीर ज्ञान है, मैं ज्ञानविग्रह हूँ। वह मुझसे कदापि पथक नहीं हो सकता / समाधिमरण के काल में होने वाली साधक की भावना को व्यक्त करने के लिए कहा गया है - - एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवमदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ // एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा // संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरम्परा / . तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं // मैं एकाकी हूँ मेरे सिवाय मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी अन्य का नहीं हूँ / इस प्रकार के विचार से प्रेरित होकर दीनता का परित्याग करके अपनी आत्मा को अनुशासित करे / यह भी सोचे कि ज्ञान और दर्शनमय एक मात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है / इसके अतिरिक्त संसार के समस्त पदार्थ मुझसे भिन्न है, संयोग से प्राप्त हो गये है और बाह्य पदार्थों के इस संयोग के कारण ही जीव को दुःख की परम्परा प्राप्त हुई है / अनादिकाल से एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा जो दु:ख उपस्थित होता रहता है, उसका मूल और कारण पर पदार्थों के साथ आत्मा का संयोग ही है। अब इस परम्परा का अन्त करने के लिए मैं मन, वचन, काया से इस संजोग का त्याग करता हूँ।