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________________ आगम निबंधमाला किया है / किन्तु "अरिहन्त शरणं" के विस्तार में केवल तीर्थंकर सम्बन्धी वर्णन ही किया है / केवली का कथन उसमें नहीं किया है। पंच परमेष्टी के स्तवनों में वर्तमान युगों के रचनाकार भी प्रथम पद में तीर्थंकर को ही लक्ष्य में रखकर अपनी रचना करते हैं यथा- 1. मनाऊँ मैं तो श्री अरिहंत महत- युग प्रधान आचार्य माधव मुनि 2. भविक जन नित जपिये- अज्ञात मुनि 3. एक सौ आठ बार परमेष्टीपारसमुनि-गीतार्थ 4. आनन्द मंगल करूँ आरती- विनयचन्द मुनि 5. नित वन्दू सौ सौ बार पंच परमेष्टी को- समर्थ शिष्य-रतनमुनि 6. घंणो है सुखकारी यो परमेष्टी को जाप-बहुश्रुत श्रमण श्रेष्ठ। .. सारांश यही है कि पंच परमेष्टी के णमो अरिहंताणं में तीर्थंकर का ही ग्रहण है / अन्यत्र जहाँ उपयुक्त हो वहाँ अरिहंत शब्द से केवली अर्थ भी समझ सकते हैं / इसी प्रकार लोगस्स एवं णमोत्थुणं के पाठ में भी अरिहंत या जिन शब्द से तीर्थंकर ही समझना चाहिये। अत: जहाँ कभी भी अरिहंत शब्द केवल तीर्थंकर की अपेक्षा से हो, वहाँ केवली होने का अर्थ करना असत्य आग्रह है, ऐसा समझ कर उसे छोड़ देना चाहिए / तदनुसार पाँच पद की भाव वन्दना के प्रथम पद में सामान्य केवली को नहीं बोलकर पाँचवे पद में बोलना एवं समझना ही सत्य ग्रहण करना है / आशा है जिज्ञासु ज्ञानी सरलात्माएँ सही तत्व समझ कर हृदयंगम करेंगे / निबंध-१४ समाधिमरण-संलेखना संथारा समाधिमरण, साधनामय जीवन की चरम और परम परिणति है। साधना के भव्य प्रासाद पर स्वर्णकलश आरोपित करने के समान है। जीवन पर्यन्त आन्तरिक शत्रुओं के साथ किए गए संग्राम में अन्तिम रूप से विजय प्राप्त करने का महान अभियान है / इस अभियान के समय वीर साधक मत्यु के भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है / संसारासक्तचित्तानां, मत्युीत्ये भवेन्नणाम् / मोदायते पुनः सोपि, ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् /
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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