________________ आगम निबंधमाला चौथा ज्ञान उत्पन्न हो जाय तो वह स्वत: आचार्यों का आचार्य नहीं हो जायगा। ज्यादा दीक्षा पर्याय वाला अल्पज्ञानी हो और कम दीक्षा पर्याय वाला कोई सर्व बहुश्रुत भी हो जाय तो भी ज्यादा ज्ञान से उसकी वन्दन व्यवस्था या विनय व्यवस्था नहीं पलटती है / किसी शिष्य को केवल ज्ञान हो जाय तो सामान्य ज्ञानी गुरु उसे वन्दन करना शुरू नहीं करेगा। वह केवली ही छमस्थ गुरु का विनय करेगा, यह बात आगम से सिद्ध है, यथाजहाहि अग्गि जलणं नमसे, णाणाहुई मंत पयाभिसित्तं / एवायरियं उवचिट्ठइज्जा, अणतणाणोवगओवि संतो // - दशवै. अ. 9 उ. 1 गा. 11 / अनन्त ज्ञानी शिष्य भी गुरु का विनय करे यह इस गाथा में शास्त्रकार का स्पष्ट आशय है / अतः वन्दन व्यवहार और रत्नधिकता में भी ज्ञानरत्न की मुख्यता नहीं होती है किन्तु चारित्र पर्याय की मुख्यता है। इसी प्रकार पंच परमेष्टी पद क्रम में एकान्त ज्ञान गुणाधिकता की मुख्यता नहीं समझनी चाहिए किन्तु पद के प्रायोग्य कार्य क्षेत्र, क्षमता आदि गुणों की मुख्यता है, ऐसा समझना चाहिए / पाँचवें पद वाले कई स्थविर आदि का श्रृंत ज्ञान आचार्य उपाध्याय से भी विशाल हो सकता है / आत्मिक गुणों में भी ५वें पद वाले आचार्य से बढकर हो सकते हैं। भगवान के समय में गणधरों से भी धन्नामुनि का नम्बर संयम गुणों में आगे हो गया था / फिर भी धन्नामुनि पाँचवे पद में थे और गौतम गणधर तीसरे पद में थे / अत: केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ५वे पद वाले को पहले पद में नहीं गिनने से और पाँचवें पद में ही गिनने से उसका कोई अपमान नहीं हो जाता है / ज्ञान वद्धि और पद व्यवस्था सम्बन्धी स्वरूप को गहरी दृष्टि से नहीं समझ कर केवल ऊपरी दृष्टि से सोचने के कारण से ही यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है परन्तु ज्ञान वद्धि और पद व्यवस्था इन दोनों के वास्तविक स्वरूप एवं सम्बन्ध को समझ लेने से व दशवैकालिक की उपरोक्त गाथा के अर्थ भाव को समझ लेने से इस प्रश्नोक्त शंका का समाधान हो सकता है / चउसरण पइण्णा नामक सूत्र में केवली का स्वरूप स्पष्ट / 55