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________________ ___ आगम निबंधमाला किसी कारण से आये हों उसे समभावों में बदल देना अत्यंत जरूरी होता है। अन्यथा दूसरे दिन साधुपणा नहीं रहता है, पक्खी निकल जाय तो श्रावकपना नहीं रहता है और संवत्सरी निकल जाय तो समकित भी नहीं रहती है और उन भावों में आयुष्य पूर्ण हो जाय तो मिथ्यात्वी की गति होती है। यों भी जो सुसाहुणो गुरुणो नहीं मान कर मम समुदायो गुरुणो या अमुक मुनि समुदायो गुरुणो मानने लग जाते हैं उनकी समकित भी सच्ची नहीं रहती है। क्यों कि उन समुदायों का आंचार जो विभक्त होने के पहले था वही विभक्त होने के बाद है फिर भी एक दूसरे के प्रति घृणा नफरत रखते हैं। . वास्तव में जो साधक अपनी धर्मकरणी की आराधना करना चाहते हैं, धर्मध्यान पुरुषार्थ को मोक्ष मार्ग में सफल बनाना चाहते हैं, उन्हें किसी पक्ष समुदाय के आग्रह में पडे बिना सभी आचारनिष्ट श्रमण श्रमणियों की शुद्ध भावपूर्वक सेवा सत्संग करते रहना चाहिये। अपने मानस को प्रत्येक साधक के प्रति पवित्र और उदार रखना चाहिये / क्यों कि जो भी मेरे तेरे के पक्ष से रागद्वेष में पडेंगे, सुसाधु को भी गुरु बुद्धि से नहीं देख कर मेरे तेरे की दृष्टि से देखेंगे उनकी सारी धर्मकरणी उत्कृष्टाचार बिना एकडे की मीडियों के जैसा बिना कीमत का रह जायेगा वे एक कदम भी मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने वाल नहीं है। निबंध-११ जैन सिद्धांत और वर्तमान ज्ञात दुनिया __ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में एवं जीवाभिगम सूत्र में भूमि भाग संबंधी विस्तृत वर्णन है / जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में एक ही द्वीप का सरल एवं परिपूर्ण वर्णन है। इसका उपयोग पूर्वक एवं चिंतन युक्त अध्ययन कर लेने पर मस्तिष्क में इस क्षेत्र का परिपूर्ण नक्शा साक्षात चित्रित सा हो जाता है। जिससे दक्षिण से उत्तर अर्थात् भरत से ऐरवत तक, पूर्व से पश्चिम सम्पूर्ण महाविदेह क्षेत्र एवं मध्य मेरु सुदर्शन मंदर पर्वत / 40
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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