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________________ आगम निबंधमाला करें, पुनः ऐसा व्यवहार नहीं करूँगा।' (2) भाव से- शान्ति सरलता एवं नम्रता से अपने हृदय को पूर्ण पवित्र एवं शांत बना लेना चाहिए। इस प्रकार भावों की शुद्धि एवं हृदय की पवित्रता के साथ व्यवहार से क्षमा करना और क्षमा मांगना यह पूर्ण क्षमापना विधि है। परिस्थितिवश ऐसा सम्भव न हो तो बृह. उ.-१, सू.-३४ के अनुसार स्वयं को पूर्ण उपशांत कर लेने से भी आराधना हो सकती है, किन्तु यदि अंतर हृदय में शान्ति, शुद्धि न हुई हो तो बाह्य विधि से संलेखना, 15 दिन का संथारा और क्षमापना कर लेने पर भी आराधना नहीं हो सकती है, ऐसा भगवती सूत्र श.-१३, उ.-६ में आये अभीचिकुमार के वर्णन से स्पष्ट होता है। अतः स्वयं के अंतर हृदय की शुद्धि, उपशांति एवं कषाय कलुष भावों की या नाराजी के भावों की पूर्ण निवृत्ति होना परमावश्यक है। ऐसा होने पर ही द्रव्य भाव से परिपूर्ण क्षमापना हो सकती है। __आज के परिप्रेक्ष्य में साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका गच्छ भेद हो जाने पर अपने ही विभक्त साधु-साध्वियों के प्रति और श्रावक-श्राविकाओं के साथ कभी भी क्षमाभाव धारण नहीं करते हैं। सदा राग-द्वेष, मेरे तेरे की गांठ बाँध कर रखते हैं / समान समाचारी और साधुपना होते हुए भी मेरे तेरे के नाम से सुसाधु को भी गुरु मानते ही नहीं अपितु घृणा, निंदा, द्वेष, अलगाव, दर्शन नहीं करना, सेवा नहीं करना, गोचरी की भावना नहीं करना, व्याख्यान नहीं सुनना, मकान-स्थानक में नहीं ठहरने देना आदि दुर्व्यवहार जिंदगीभर करते रहते हैं / ऐसा कषाय, अनमना व्यवहार तथा नाराजी सदा के लिये स्थिर रखते हैं, कभी भी क्षमापनाभाव हृदय में लाने का नहीं होता है / ऐसा करने वाले सभी साधु-साध्वी एवं श्रावक श्राविका अपने को कितना ही उत्कृष्ट आचारी माने परन्तु वास्तव में वे सभी समकित से भी भ्रष्ट रहते हैं, वे कभी समकित के भी आराधक नहीं हो सकते, अभिचिकुमार के समान / ... सार यह है कि अंतर हृदय में किसी भी व्यक्ति के प्रति नाराजी के भाव नहीं रहने चाहिये और जो भी नाराजी के भाव 39
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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