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________________ आगम निबंधमाला भगवान ने छद्मस्थ काल में एक बार भी प्रमाद का सेवन नहीं किया था, इसका क्या तात्पर्य है ? उत्तर- उस पंद्रहवीं गाथा में भावप्रमाद की अपेक्षा कथन है वे भावप्रमाद भी उसी गाथा में सूचित किये गये हैं / अकसाई, विगय गेही, सद्दरूवेसु अमुच्छिए झाई / छउमत्थे वि परक्कममाणे, णो पमायं सई पि कुव्वित्था // 15 // भावार्थ- भगवान महावीर स्वामी कषाय रहित होकर, शरीरादि पर गृद्धि भाव से रहित होकर एवं शब्द रूप आदि विषयों में मूर्छा चाहना से रहित होकर आत्म ध्यान में रहते थे / इस प्रकार भगवान ने छद्मस्थ काल में संयम तप में पराक्रम करते हुए कभी भी संयम में प्रमाद अर्थात् दोष सेवन नहीं किया था / तप संयम में, नियम उपनियम में या भाव शुद्धि-पवित्रता में कभी किसी भी प्रकार का प्रमाद(दोष सेवन) नहीं किया था / इस गाथा में सोने या निद्रा लेने का प्रसंग स्पष्ट है भी नहीं और समझना भी नहीं चाहिये। क्यों कि ऐसां समझने से अर्थ भ्रम का दोष और पूर्वापर विरोध दोष होता है। इस अध्ययन के दूसरे उद्देशक की पाँचवींछट्ठी गाथा को नजर में रखते हुए इस चौथे उद्देशक की पंद्रहवी गाथा का ऐसा सही एवं प्रसंग संगत अर्थ करना ही उपयुक्त होता है / प्रश्न-९ : भगवान ने साधना काल में क्या-क्या तप किये थे ? उत्तर- आचारांग सूत्र के इस नौंवें अध्ययन के वर्णन अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने बाह्य और आभ्यंतर तप इस प्रकार किये थे- (1) आहार की मात्रा(खुराक या भूख) से कम खाना, औषध त्याग। (2) ठंडी एवं गर्मी की आतापना / (3) भात(ओदन), बोरकूटा उडद(के बाकुले) इन तीन खाद्य पदार्थों से आठ महिने तक निर्वाह किया था अर्थात् तीन पदार्थों में से कोई पदार्थ मिले तो लेना, ऐसा अभिग्रह किया था / (4) साधना काल में भगवान ने कभी अर्ध मासखमण, कभी मासखमण, कभी साधिक दो मास की तपस्या यावत् कभी छ: महीने की अनशन तपस्या की थी। ये सभी तपस्या भगवान ने चौविहार की थी अर्थात् गर्म पानी का भी तपस्या में सेवन नहीं किया था / (5) अमनोज्ञ, नीरस, उच्छिष्ट ऐसे(अन्न ग्लान) आहार का भी / 30
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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