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________________ आगम निबंधमाला प्राणांतिपात विरमण, मषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, क्रोध से विरत, मान से विरत, माया से विरत, लोभ से विरत, प्रेम से विरत, द्वेष से विरत, कलह से विरत, अभ्याख्यान से विरत, पैशुन्य से विरत, पर-परिवाद से विरत, अरतिरति से विरत, माया मषा से विरत एवं मिथ्या दर्शन शल्य विवेक,यों 18 पाप से निवत्ति भी लोक में होती है / सभी पदार्थों में अस्तिभाव अपने-अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से अस्तित्व को लिए हुए है, सभी नास्तिभाव पर-द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से नास्तित्व को लिए हए है / किन्तु वे भी अपने स्वरूप से है / दान, शील, तप आदि उत्तम कर्म उत्तम फल देने वाले हैं। पापमय कर्म दुःखमय फल देने वाले हैं / जीव पुण्य पाप का स्पर्श करता है, बंध करता है / जीव उत्पन्न होते हैं / संसारी जीवों का जन्म मरण होता है, शुभकर्म और अशुभकर्म दोनों फल युक्त है, निष्फल नहीं होते / निग्रंथ प्रवचन का महात्म्य :- यह निग्रंथ प्रवचन मय उपदेश सत्य है, अणुत्तर है, केवली द्वारा भाषित अद्वितीय है, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण है, न्याय संगत है, प्रमाण से अबाधित है, माया आदि शल्यों का निवारक है, सिद्धि का मार्ग-उपाय है, मुक्ति-कर्म क्षय का हेतु है, निर्वाण-पारमार्थिक सुख प्राप्त करने का मार्ग है, निर्वाण-पद के लिए जन्म मरण के चक्र रूप संसार से प्रस्थान करने का मार्ग यही (आगम) है / वास्तविक, पूर्वापर विरोध से रहित अर्थात् कुतर्कों से अबाधित है / यह विच्छेद रहित है, सब दुःखों को क्षीण करने का सही उत्तम मार्ग है, इसमें स्थित जीव सिद्धि-सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं, केवल ज्ञानी होते हैं, जन्म मरण से मुक्त होते हैं / परम शांतिमय हो जाते हैं, सभी दु:खों का अन्त कर देते हैं / जिनके एक ही मनुष्य भव धारण करना बाकी रहा है ऐसे निर्गंथ प्रवचन के आराधक किन्ही देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, वहाँ अत्यन्त विपुल ऋद्धियों से पूर्ण लम्बी आयु वाले देव होते हैं / वे असाधारण रूपवान होते हैं / जीव चार कारणों से नरक का बंध करते हैं- (1) महा आरंभ, . (2) महा परिग्रह (3) पंचेन्द्रिय वध (4) मांस भक्षण / . जीव चार कारणों से तिर्यंच योनि का बंध करते हैं- (1) | 241]
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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