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________________ आगम निबंधमाला मायापूर्ण आचरण (2) असत्य भाषण युक्त मायाचरण (3) उत्कंचनता . (धूर्तता) (4) वंचनता (ठगी) / जीव चार कारणों से देव योनि में उत्पन्न होते हैं- (1) सराग संयम (2) संयमासंयम (3) अकाम निर्जरा (4) बाल तप / __नरक में जाने वाले नैरयिक विविध दुःखमय वेदना पाते हैं, तिर्यंच में शारीरिक मानसिक संताप प्राप्त करते हैं, मनुष्य जीवन अनित्य है / व्याधि, वद्धावस्था, मत्यु और वेदना आदि कष्टों से व्याप्त है। देव लोक में देव ऋद्धि और अनेक दैविक सुख प्राप्त करते हैं / इस प्रकार चार गति, सिद्ध और छज्जीवनिकाय के जीव अलग-अलग है। कई जीव कर्म बंध करते हैं, कई उससे मुक्त होते हैं, कई परिक्लेश पाते हैं / किन्तु अनासक्त रहने वाले कई व्यक्ति दु:खों का अन्त करते हैं / आर्तध्यान से पीडित चित्त वाले जीव दुःख प्राप्त करते हैं किन्तु वैराग्य को प्राप्त करने वाले जीव कर्मदल को ध्वस्त कर देते हैं। राग पूर्वक किये गये कर्मों का विपाक पाप पूर्ण होता है, धर्माचरण द्वारा कर्म से सर्वथा रहित होने पर ही जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं। धर्माचरण दो प्रकार का है- (1) अगार धर्म (2) अणगार धर्म / अणगार धर्म में सम्पूर्ण रूप से सर्वात्म भाव से सावध कर्मों का परित्याग करता हुआ मानव मुंडित होकर मुनि अवस्था में प्रव्रजित होता है, सम्पूर्णतः प्राणातिपात, मषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रि भोजन से विरत होता है / यह अणगार सामायिक संयम धर्म है, इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित होकर आगम प्रमाण की प्रमुखता से प्रवत्ति करने वाले साधु-साध्वी आज्ञा के आराधक होते हैं / आगार धर्म 12 प्रकार का है- 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत / पाँच अणुव्रत- स्थूल प्राणातिपात का त्याग, स्थूल मूषावाद का त्याग, स्थूल अदत्तादान का त्याग, स्वदार संतोष एवं इच्छा परिमाण। तीन गुणव्रत- दिशाओं में जाने की मर्यादा, उपभोग परिभोग परिमाण, अनर्थदंड विरमण / चार शिक्षाव्रत- सामायिक, देशावकाशिक (नित्य प्रवत्तियों में निवत्तिभाव की वद्धि का अभ्यास), पोषध, अतिथिसंविभाग / अंतिम समय में संलेखना-आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देह त्याग करना, |24
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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