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________________ आगम निबंधमाला शंकाओं को पूछकर समाधान करना; श्रुत का परावर्तन करना; अनुप्रेक्षा करना; धर्मोपदेश देना, स्वाध्याय तप है। (11) आत्म स्वरूप का, एकत्व, अन्यत्व, अशरण भावना आदि का, लोक स्वरूप का एकाग्र चित्त से आत्मानुलक्षी सूक्ष्म-सूक्ष्मतर चिंतन करते हुए उसमें तल्लीन हो जाना ध्यान तप है। प्रथम अवस्था धर्म ध्यान है और उससे आगे की अत्यंत सूक्ष्म तत्त्व चिंतन अवस्था शुक्लध्यान है। (12) व्युत्सर्ग- मन,वचन,काया के व्यापारों का निर्धारित समय के लिये पूर्ण रूप से परित्याग कर देना, योग-व्युत्सर्ग है। इसे प्रचलन की भाषा में कायोत्सर्ग कहा जाता है / इसी तरह कषायों का, कर्मों का, समूह-गण का व्युत्सर्जन कर एकाकी रहना, ये व्युत्सर्जन तप के द्रव्य एवं भाव भेदों के प्रकार हैं। इन 6 बाह्य और 6 आभ्यंतर तपों का यथाशक्ति जो मुनि सम्यक् आराधना करता है एवं इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए आगे बढ़ता है, वह शीघ्र ही कर्मों की महान निर्जरा करते हुए संसार से मुक्त हो जाता है। निबंध-७ 6 लेश्याओं के लक्षण से अपने को पहिचानो कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्या अशुभ है और तेजो, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्या शुभ है। अथवा तीन अधर्म लेश्याएँ हैं वे जीव को दुर्गति में ले जाने वाली है और तीन धर्म लेश्याएँ हैं वे जीव को सद्गति में ले जाने वाली है। लेश्याएँ द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की होती है। भावलेश्या तो आत्मा के परिणाम अर्थात् अध्यवसाय रूप है, जो अरूपी है / द्रव्यलेश्या पुद्गलमय होने से रूपी है उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, परिणाम, स्थान, स्थिति आदि का उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन-३४में वर्णन किया गया है तथा भावलेश्या की अपेक्षा-लक्षण, गति, आयुबंध का वर्णन किया गया है / 23
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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