________________ आगम निबंधमाला है / अतः समकित लाभ के बाद व्रतधारण भी आत्म विकास में आवश्यक है। संमकित के आठ अंग- (1) निशंकित रहना (2) आकांक्षाओं से हित होना (3) धर्म फल में संदेह रहित रहना (4) ज्ञान वृद्धि करना (5) सुसंगति से श्रद्धा पुष्ट करना (6) स्वयं स्थिर-दृढ़ होना, दूसरों को भी स्थिर करना (7) धर्म का प्रेम बढ़ाना (8) धर्म की दलाली प्रेरणा प्रभावना प्रचार करना। सम्यग् चारित्र-तप :- सामायिक आदि 5 चारित्र कहे है, जिसमें छद्मस्थ और केवली दोनों के चारित्र है। चयरित्त करं-कर्मों के संग्रह को कम करने वाले चारित्र कहे जाते हैं। तप, बाह्य आभ्यंतर दो प्रकार का होता है। चारित्र और तप का विस्तार भगवती आदि सूत्रों में है। उपवास आदि बाह्यतप एवं स्वाध्याय आदि आभ्यंतर तप में यथाशक्ति यथावसर क्रमशः वृद्धि करते रहने का प्रयत्न करना, शरीर के ममत्व को दूर कर कर्म क्षय करने में संपूर्ण आत्मशक्ति को झोंक देना, "देहं पातयामि कार्यं साधयामि" अथवा "देह दुक्खं महाफलं" के आगमिक सिद्धांत को आत्मशात कर देना 'तपाराधना' है। तप में भी ध्यान के बाद अंतिम तप व्युत्सर्ग है इसमें मन, वचन, काया, कषाय, गण समूह आदि का एवं शरीर के ममत्व का तथा आहारादि का व्युत्सर्जन (त्याग) किया जाता है। संक्षिप्त सार :- ज्ञान से तत्त्वों को, आश्रव-संवर को जानना / दर्शन से उनके विषय में यथावत् श्रद्धान करना / चारित्र से नये कर्म बंध को रोकना और तप से पूर्व कर्मों का क्षय करना, इस प्रकार चारों के. सुमेल से ही मोक्ष की परिपूर्ण साधना होती है। यही इस अध्ययन का उद्घोष है / किसी भी एक के अभाव में साधना की सफलता सम्भव नहीं है। महर्षि कर्मक्षय करने के लिये चतुर्विध मोक्ष मार्ग म पराक्रम करते हैं / निबंध-६ बारह प्रकार के तप का संक्षिप्त स्वरुप (1) नवकारसी, पोरिसी, आयंबिल, उपवास से लेकर 6 मास तक का / 21 /