SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला सम्यग्ज्ञान :- इस अध्ययन में मति आदि ज्ञान के 5 भेद गिनाये हैं। द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप बताया है। गुणों का आश्रय-आधार वह द्रव्य है। एक द्रव्य के आश्रय में अनेक गुण रहते हैं और पर्यायें, द्रव्य-गुण दोनों के आश्रय से रहती है। 6 द्रव्यों का संक्षिप्त परिचय दिया है जिसमें जीव-अजीव का लक्षण स्पष्ट किया गया है। जीव का लक्षण भी दो अपेक्षाओं से कहा है- (1) सामान्य जीव उपयोग लक्षण वाला, ज्ञान-दर्शन गुण वाला, सुख-दुःख का अनुभव करने वाला है। (2) अपेक्षा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये गुण भी संसारी जीव की अपेक्षा होते हैं / अजीव का लक्षण :- शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप और वर्णादि ये पुद्गल द्रव्य के लक्षण है। मिलना, बिछुड़ना, संख्या वृद्धि-हानि, संस्थान, संयोग, विभाग ये पर्यव-पर्याय के लक्षण है। सम्यग्दर्शन :-जीवादि नव पदार्थों को जान कर उनकी यथार्थ श्रद्धा करना, यही समकित है। यह समकित भी जीव को 10 प्रकार से प्राप्त होती है- (1) स्वभाविक खुद के ज्ञान चिंतन से (2) उपदेश-प्रेरणासमझाइस से (3) बड़े बुजुर्गों की आज्ञा से कि यह अपना धर्म है अथवा ज्ञानियों की आज्ञा समझ कर स्वीकारना (4) शास्त्र के अभ्यास से (5) बीज रुचि-थोड़े ज्ञान से एवं उसका विस्तार होने से (6) श्रुत का निरंतर पूर्ण अध्ययन से (7) सर्व द्रव्य, सर्व दृष्टि, सर्व नय, निक्षेप, प्रमाणचर्चा सहित विस्तार रुचि से होने वाली समकित. (8) क्रिया- आचार पालन से सामायिक आदि व्रत-नियम, त्याग, प्रत्याख्यान करते करते श्रद्धा होना। (9) संक्षेप में अपना धर्म समझ कर श्रद्धा रखना, ज्ञानचर्चा का उपयोग नहीं लगाना (10) अस्तिकाय धर्म अर्थात् षट द्रव्य, श्रुतधर्म और चारित्र धर्म वगैरह जिनशासन में अनुपम तत्त्व है ऐसा समझकर श्रद्धा करना अर्थात् ऐसा धर्म अन्यत्र संभव नहीं है ऐसा मान कर अहोभाव युक्त श्रद्धा करना / समकित महत्त्व- परमार्थ परिचय आदि समकित की पुष्टि के चार प्रकार है / समकित के बिना अकेला चारित्र हो नहीं सकता। दोनों साथ में हो सकते हैं। अकेली समकित, बिना चारित्र के एक दो भव तक रह सकती है ज्यादा नहीं रहती, मिथ्यात्व में परिणत हो जाती / 20
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy