SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला (1) अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यव ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। (2) अवधिज्ञान सभी प्रकार के रूपी द्रव्यों को विषय करता है, मनःपर्यव ज्ञान केवल मनोद्रव्यों को विषय करता है। (3) अवधि ज्ञान चारों गति में होता है, मनःपर्यव ज्ञान मनुष्य गति में ही होता है। (4) अवधिज्ञान मिथ्यात्व आने पर नष्ट नहीं होता है परिवर्तित होकर विभंग ज्ञान कहलाता है, मनःपर्यव ज्ञान मिथ्यात्व आते ही समाप्त हो जाता है। (5) अवधिज्ञान के साथ अवधि दर्शन होता है, मनःपर्यव ज्ञान के साथ कोई दर्शन नहीं होता है। (6) अवधिज्ञान आगामी भव में साथ जाता है, मनःपर्यवज्ञान परभव में साथ नहीं जाता है। (7) मनःपर्यव ज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विषय अल्प है, अवधिज्ञान का विषय अत्यन्त विशाल है अर्थात् अवधिज्ञानी संपूर्ण शरीर के चिकित्सक के समान है, तो मनःपर्यव ज्ञानी किसी एक अंग के विशेषज्ञ के समान है। केवलज्ञान और चार ज्ञान :- . मति आदि चार ज्ञान एक साथ एक व्यक्ति में हो सकते है। केवल ज्ञान अकेला ही रहता है। शेष चारों ज्ञान उसी में विलीन हो जाते है। जिस प्रकार किसी मकान की एक दिशा में चार दरवाजे हैं, उन्हें हटाकर पूरी दिशा खुली करके जब एक ही चौडा मार्ग बना दिया जाता है, तब उसमें प्रवेश द्वार 4 या 5 नहीं होकर एक ही मार्ग कहा जाता है। चार दरवाजों के चार मार्ग भी उसी में समाविष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार एक केवल ज्ञान में ही चारों ज्ञान समाविष्ट हो जाते हैं। केवल ज्ञान से बढ़कर और कोई ज्ञान नहीं होता है। यही सर्वोपरी ज्ञान है और आत्मा की सर्वश्रेष्ठ निज स्वभाव अवस्था है / इसी को प्राप्त करने के लिए ही संपूर्ण तप संयम की साधना स्वीकार की जाती है। भगवती सूत्र और नंदी सूत्र में मतिज्ञान का विषय : मतिज्ञान के अतिरिक्त चार ज्ञान का विषय उक्त दोनों सत्रों में समान है। किंतु मतिज्ञान के विषय में नंदी में अपेक्षा से सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानने का विधान किया किंतु देखने का निषेध किया है। भगवती सूत्र में अपेक्षा से जानने देखने दोनों का विधान / 208
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy