________________ आगम निबंधमाला सकता है। जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही कथन की अपेक्षा तो एक है, किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट अधिक है, ऐसा समझ लेना चाहिए। (यदि जघन्य उत्कृष्ट वास्तव में समान ही होता है तो उसे जघन्य उत्कृष्ट न कहकर अजघन्य अनुत्कृष्ट कहा जाता है) भाव से- मनःपर्यव ज्ञानी अनंत भावों को जानता देखता है / जैसे दो छात्रों ने एक ही विषय में परीक्षा दी। एक ने प्रथम श्रेणी के अंक प्राप्त किए, दूसरे ने द्वितीय श्रेणी के, स्पष्ट है कि प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले का ज्ञान विशेष रहा, उसकी श्रेणी भी अलग है और आगे कहीं प्रवेश में भी प्रथम श्रेणि वाले को प्राथमिकता मिलेगी। ठीक इसी तरह ऋजुमति और विपुलमति को समझना ।ऋजुमति उसी भव में विनष्ट हो सकता है किन्तु विपुल मति पूरे भव तक रहता है, यह इसकी विशेषता है। किसी धारणा से विपुल मति उसी भव में मोक्ष जाता है, किन्तु ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञानी तो भविष्य में अनन्त भव भी कर सकता है। सामान्य अन्तर भी कभी महत्वशील अन्तर हो जाता है यथा कोई चुनाव में एक मत(वोट) कम हो गया तो पाँच साल का नम्बर चला जाता है। ऐसी ही विशेषता दोनों प्रकार के मनःपर्यव ज्ञान में है, अतः दो प्रकार कहे गये हैं। अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान में परस्पर तुलना : . अवधिज्ञानी भी कोई मन की बात जान सकते हैं / इसे दृष्टांत द्वारा समझे- एक डाक घर में अनेक व्यक्ति है कोई तार का अनुभवी है कोई उस विषय का अनुभवी नहीं है / जो तार का अनुभवी नहीं है उसके श्रोतेन्द्रिय तो है ही। आने वाले तार की टिक टिक की आवज वह भी सुन लेता है किन्तु सुनने मात्र से वह उसके आशय को नहीं समझ सकता। ठीक वैसा ही अंतर अवधिज्ञानी और मनःपर्यव ज्ञानी के देखने का समझ सकते है। अथवा एक डाक्टर चक्षुरोग का विशेषज्ञ है और दूसरा संपूर्ण शरीर का चिकित्सक है उसमें आँख की चिकित्सा भी वह करता है किन्तु आँख के विषय में उसके अनुभव चिकित्सा में और चक्षु विशेषज्ञ के अनुभव चिकित्सा में अन्तर होना स्पष्ट है। वैसे ही अवधिज्ञानी के द्वारा मन के पुद्गल जानने में और मनःपर्यव ज्ञानी के द्वारा मन को जानने देखने में अन्तर है, ऐसा समझना चाहिए। 207