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________________ आगम निबंधमाला .. कल्पनाएँ भेड़चाल से प्रवाहित होती रहती है और होती रहेगी। सही चिंतन और ज्ञान का संयोग महान भाग्यशालियों को ही प्राप्त होगा। सार- धर्म का प्रवर्तन तीसरे आरे में प्रथम तीर्थंकर द्वारा होता है / अतः दूसरे आरे से संवत्सरी का संबंध नहीं हो सकता। निबंध-५९ मनःपर्यव आदि ज्ञान विषयक समीक्षा (1) जैसे वचन या भाषा के द्रव्य और भाव ऐसे विकल्प नहीं होते हैं वैसे ही मन के भी द्रव्य और भाव विकल्प आगम में नहीं कहे गये हैं / इसकी प्रक्रिया पूर्ण भाषा परिणमन के समान ही है। जैसे भाषा के रूपी अरूपी विकल्प नहीं होते हैं, वैसे मन के भी रूपी अरूपी विकल्प नहीं होते हैं। वे दोनों रूपी ही होते हैं / ग्रंथों में मन के द्रव्य और भाव विकल्प किए गये हैं किन्तु उनकी कोई आवश्यकता या उपयोगिता नहीं है। (2) यह मनःपर्यवज्ञान दो तरह का होता है। 1. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान 2. विपुल मति मनःपर्यवज्ञान / ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को विशुद्ध विपुल और निर्मल रूप से जानता देखता है एवं क्षेत्र में ढ़ाई अंगुल क्षेत्र इसका अधिक होता है। मनःपर्याय ज्ञान का विषय- (1) द्रव्य से मनःपर्यव ज्ञानी सन्नी जीवों (देव मनुष्य तिर्यंच) के मन के(मन रूप में परिणत पुद्गलों के) अनंत अनंत प्रदेशी स्कंधों को जानता देखता है। (2.) क्षेत्र से मनः पर्यवज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जानता देखता है उत्कृष्ट नीचे 1000 योजन, ऊपर 900 योजन, चारों दिशाओं में 45 लाख 45 लाख योजन क्षेत्र में रहे हुए सन्नी देव, मनुष्य, तिर्यंचों के व्यक्तमन को जानता देखता है। ( जिस प्रकार अस्पष्ट शब्द नहीं सुने जाते हैं, वैसे ही अस्पष्ट मन नहीं जाने देखे जाते हैं / ) (3) काल से- जघन्य पल्योपम का असंख्यातवा भाग जितने समय के भूत भविष्य मन को जान देख सकता है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने समय के भूत भविष्य मन को जान देख / 206
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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