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________________ आगम निबंधमाला निबंध-५८ दूसरे आरे से संवत्सरी की कल्पना यहाँ कई लोग ऐसे भ्रमित अर्थ की कल्पना भी कर बैठते है कि मानों वृष्टि खुलते ही भूमि वृक्षादि से युक्त हो जाती है, ऐसा कथन अनुपयुक्त है। क्यों कि वृक्षों से युक्त होने में वर्षों लगते हैं और अन्य वनस्पति गुच्छ गुल्म लता आदि के फल फूल लगने में भी महिनों लगते हैं / क्यों कि वे प्राकृतिक होते हैं, देवकृत नहीं होते / इस दूसरे आरे की आगमिक स्पष्ट वर्णन वाली निरंतर पाँच साप्ताहिक वृष्टि के लिये जबरन सात साप्ताहिक मान कर एवं कालांतर से मानव द्वारा की जाने वाली मासांहार निषेध की प्रतिज्ञा को लेकर कई एकतरफा दृष्टि वाले अर्द्धचिंतक लोग इसी को संवत्सरी का उद्गम कह बैठते है / कहाँ तो श्रमण वर्ग के द्वारा निराहार मनाई जाने वाली धार्मिक पर्व रूप संवत्सरी और कहाँ सचित्त वनस्पति, कंद, मूलादि खाने वाले संयतधर्म रहित काल वाले मानवों का जीवन। संवत्सरी का सुमेल किंचित भी नहीं होते हुए भी अपने आपको विद्वान मान कर जबरन शास्त्र के नाम से उन अव्रती सचितभक्षी मानवों द्वारा चलाई गई सामाजिक सामान्य व्यवस्था को संवत्सरी मान कर उसका अनुसरण स्वयं करना, साथ ही तीर्थंकर भगवान को, गणधरों को और व्रती श्रमणों को उनका अनुसरण करने वाला बताकर विद्वान लोग मात्र बुद्धि की हंसी करवाने का ही कार्य करते हैं / ऋषि पंचमी का उद्गगम तो ऋषि महिर्षियों द्वारा धर्म प्रवर्तन के साथ होता है। उसे भुला कर पाँच सप्ताह के सात सप्ताह करके और वर्षा बंद होते ही वृक्षों की, बेलों की, फलों की, धान्यों की, असंगत कल्पना करके अव्रती सचित्तभक्षी लोगों की नकल से संवत्सरी को खींचतान कर तीर्थंकर धर्म प्रणेताओं से जोड़ करके इस प्रकार की आत्म संतुष्टी करते हैं कि मानो हमने आगमों से संवत्सरी पर्व का बहुत बड़ा प्रमाण 49 दिन का खोज निकाला है। ऐसे बुद्धिमानों की बुद्धि पर बड़ा ही आश्चर्य एवं अनुकंपा उत्पन्न होती है किन्तु इस पंचमकाल के प्रभाव से ऐसी कई 205
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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