________________ आगम निबंधमाला जानकर कि "अंवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर का पाणिग्रहण करना मेरा कर्तव्य है" भरत क्षेत्र में आकर देव देवियों के सहयोग से सुमंगला और सुनंदा कुँवारी कन्याओं के साथ भगवान की विवाहविधि सम्पन्न की। भगवान ऋषभ देव की दीक्षा-८३ लाख पूर्व(२०+६३)कुमारावस्था एवं राज्यकाल के व्यतीत होने पर चैत्र वदी 9 (ग्रीष्म ऋतु के पहले महीने पहले पक्ष चैत्र वदी नवमी) के दिन भगवान ने विनीता नगरी के बाहर सिद्धार्थ वन नामक उद्यान में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा महोत्सव 64 इन्द्रों ने किया। साथ में 4000 व्यक्तियों ने भी संयम अंगीकार किया / एक वर्ष पर्यन्त भगवान ने देवदूष्य वस्त्र धारण किया-कंधे पर रखा / एक वर्ष तक मौन एवं तप अभिग्रह धारण किया। प्रथम पारणा एक वर्ष से (360 दिन से) राजा श्रेयाँश कुमार के हाथ से हुआ एवं भ्रमित प्रवाह से उसी को 400 दिन कहे जाने लगे हैं / 1000 वर्ष तक तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए भगवान ने विचरण किया। 1 हजार वर्ष व्यतीत होने पर पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में ध्यानावस्था में तेले की तपस्या में फागुण वदी 11 को केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। - भगवान ने उपदेश देना प्रारम्भ किया, चार तीर्थ की स्थापना की। 84 गण 84 गणधर ऋषभसेन प्रमुख 84000 श्रमण, ब्राह्मी सुन्दरी प्रमुख 3 लाख श्रमणियाँ, श्रेयाँस प्रमुख तीन लाख पाँच हजार श्रावक, एवं सुभद्रा प्रमुख 5 लाख 54 हजार श्राविकाएँ हुई / भगवान के असंख्य पाट तक केवलज्ञान प्राप्त होता रहा, इसे युगान्तर कृत भूमि कहा गया है एवं भगवान के केवलज्ञान उत्पत्ति के अंतर्मुहूर्त बाद मोक्ष जाना प्रारम्भ हुआ, इसे पर्यायान्तरकृत भूमि कहा गया है। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल के प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम तीर्थंकर केवली हुए / पाँच सौ धनुष का उनका.शरीरमान था। एक लाख पूर्व संयम पर्याय, 83 लाख पूर्व गृहस्थ जीवन, यो 84 लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर के माघ वदी 13 के दिन, 10 हजार साधुओं के साथ 6 दिन की तपस्या में अष्टापद पर्वत पर भगवान ऋषभदेव ने परम निर्वाण को प्राप्त किया। देवों ने भगवान [197