________________ आगम निबंधमाला सुखमा-दुःखमी हैं। दूसरा आरा पूर्ण होने पर तीसरा आरा प्रारम्भ होता है। सभी पदार्थों के गुणों में अनंत गुणी हानि होती है। प्रारम्भ में मनुष्यों की उम्र एक पल्योपम होती है। अंत में एक करोड़ पूर्व की होती है। अवगाहना प्रारंभ में एक कोस की होती है। अंत में 500 धनुष की होती है। शरीर में पसलियाँ 64 होती है। एक दिन से आहार की इच्छा होती है एवं पुत्र-पुत्री की पालना 79 दिन की जाती है। शेष वर्णन प्रथम आरे के समान है। इस आरे के दो तिहाई भाग तक उक्त व्यवस्था में क्रमिक हानि होते हुए वर्णन समझना किन्तु पिछले एक तिहाई भाग में भी पल्योपम का आठवाँ भाग शेष रहने पर फिर अक्रमिक हानि वृद्धि का मिश्रण काल चलता है। दस विशिष्ट वृक्षों की संख्या कम होने लग जाती है। युगल व्यवस्था में भी अंतर आने लग जाता है। इस तरह मिश्रण काल चलते चलते 84 लाख पूर्व का जितना समय इस आरे का रहता हैं तब लगभग पूर्ण परिवर्तन हो जाता है अर्थात् युगल काल से कर्मभूमि काल आ जाता है। तब खान-पान, रहन-सहन, कार्य-कलाप,सन्तानोत्पत्ति, शांति, स्वभाव, परलोक गमन आदि में अंतर आ जाता है। चारों गति और मोक्ष गति में जाना चालू हो जाता है। शरीर की अवगाहना एवं उम्र का भी कोई ध्रुव कायदा नहीं रहता है। सहनन संस्थान सभी(छहों) तरह के हो जाते हैं। पिछले एक तिहाई भाग के भी अंत में और पूर्ण कर्मभूमि काल के कुछ पहले वृक्षों की कमी आदि के कारण एवं काल प्रभाव के कारण, कभी कहीं आपस में विवाद कलह पैदा होने लगते हैं। तब उन युगल पुरुषों में ही कोई न्याय करने वाले पंच कायम कर दिये जाते है। उन्हें कुलकर कहा गया है। इन कुलकरों की 5-7-10-15 पीढ़ी करीब चलती है। तब तक तो प्रथम तीर्थंकर उत्पन्न हो जाते है। कुलकरों को कठोर दंड नीति नहीं चलानी पड़ती है। सामान्य उपालंभ मात्र से ही अथवा अल्प समझाइस से ही उनकी समस्या हल हो जाती है। इन कुलकरों की 3 नीतियाँ कही गई हैं- हकार, मकार, धिक्कार। ऐसे शब्दों के प्रयोग से ही वे युगल मनुष्य लज्जित भयभीत और विनयोवनत होकर शांत हो जाते हैं। इस वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में हुए 14 | 1950