SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला इस आरे का नाम सुखमासुखमी है। यह आरा 4 क्रोडाक्रोड़ सागरोपम का होता है। इस काल में भरत क्षेत्र के पृथ्वी, पानी एवं वायुमंडल का तथा प्रत्येक प्राकृतिक पदार्थों का स्वभाव अति उत्तम, सुखकारी एवं स्वास्थ्य प्रद होता है। मनुष्यों की तथा पशु पक्षी की संख्या अल्प होती है। जलस्थानों की एवं दस प्रकार के विशिष्ट वृक्षों की बहुलता होती है। ये विशिष्ट वृक्ष 10 जाति के होते हैं इन्हीं से मनुष्यों आदि के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस काल में खेती व्यापार आदि कर्म नहीं होते हैं / नगर, मकान, वस्त्र, बर्तन आदि नहीं होते हैं। भोजन पकाना, संग्रह करना नहीं होता है। अग्नि भी इस काल में उत्पन्न नहीं होती है नहीं जलती है / इच्छित खाद्यपदार्थ वृक्षों से प्राप्त हो जाते हैं। निवास एवं वस्त्र का कार्य भी वृक्ष छाल पत्र आदि से हो जाता है। पानी के लिए अनेक सुंदर स्थान सरोवर आदि होते हैं। युगल मनुष्य-इस समय में स्त्री पुरुष सुन्दर एवं पूर्ण स्वस्थ होते हैं। उन्हें जीवनभर औषध उपचार वैद्य आदि की आवश्यकता नहीं होती है। मानुषिक सुख भोगते हुए भी जीवन भर में उनके केवल एक ही युगल उत्पन्न होता है अर्थात् उनके एक साथ एक पुत्र और एक पुत्री जन्मती है। हम दो हमारे दो का आधुनिक सरकारी सिद्धांत उस समय स्वाभाविक प्रवहमान होता है। उस युगल पुत्र पुत्री की 49 दिन पालना माता पिता द्वारा की जाती है फिर वे स्वनिर्भर स्वावलंबी हो जाते हैं। 6 महिने के होने पर उनके माता पिता छींक एवं उबासी के निमित्त से लगभग एक साथ मर जाते हैं। फिर वह युगल भाईबहिन के रूप में साथ-साथ विचरण करता है और योवन वय प्राप्त होने पर स्वतः पति-पत्नि का रूप धारण कर लेता है। युगल शरीर-उस समय के मनुष्यों की उम्र 3 पल्योपम की होती है और क्रमिक घटते घटते प्रथम आरे की समाप्ति तक 2 पल्योपम की हो जाती है। उन मनुष्यों के शरीर की अवगाहना 3 कोस की होती है। स्त्रियाँ पुरुष से 2-4 अंगुल छोटी होती है। यह अवगाहना भी घटते-घटते पहले आरे के अंत में 2 कोस हो जाती है। इन युगल मनुष्यों के शरीर का वज्रऋषभनाराच संहनन होता है, सुंदर सुडौल 193
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy