________________ आगम निबंधमाला . मध्यखंड में विचरण करने लगे। अंत में अष्टापद पर्वत पर संलेखना संथारा पादपोपगमन पंड़ित मरण स्वीकार किया। इस प्रकार भरत चक्रवर्ती 77 लाख पूर्व कमारावस्था में रहे, एक हजार वर्ष मांडलिक राजा रूप में, 6 लाख पूर्व में हजार वर्ष कम चक्रवर्ती रूप में रहे। कुल 83 लाख पूर्व गृहस्थ जीवन में रहे। एक लाख पूर्व देशोन केवली पर्याय में रहे / एक महिने के संथारे से कुल 84 लाख पूर्व की आयुष्य पूर्ण कर सम्पूर्ण कर्मों को क्षय किया एवं सिद्ध बुद्ध मुक्त हुएसब दुःखों का अंत किया / निबंध-५७ उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल के 6-6 आरे दस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम जितने काल की उत्सर्पिणी और उतने ही काल की अवसर्पिणी होती है। दोनों मिलकर एक कालचक्र कहलाता है। यह कालचक्र भरत-ऐरवत क्षेत्रों में ही होता है, महाविदेह क्षेत्र में नहीं होता है। उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी दोनों में 6-6 विभाग होते है, उन्हें 6 आरे कहा जाता है। उत्सर्पिणी के पहले से छठे आरे तक क्रमशः मनुष्यों की अवगाहना-आयुष्य बढ़ते हैं। पुद्गलों में वर्ण गंध रस स्पर्श शुभ रूप में बढ़ते हैं और अवसर्पिणी में ये सभी क्रमशः घटते रहते हैं / महाविदेह क्षेत्र में ऐसा उतार-चढ़ाव नहीं होता है, सदा एक सरीखा समय वर्तता है। इसलिये वहाँ 6 आरे नहीं होकर सदा एक सा अवसर्पिणी का चौथा आरा वर्तता है। ___वर्तमान में हमारे भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा चल रहा है, अवसर्पिणी के छ आरों के नाम इस प्रकार है- (1) सुखमासुखमी (2) सुखमी (3) सुखमा दुखमी (4) दुःखमा सुखमी (5) दुःखमी (6) दुःखमादुःखमी / उत्सर्पिणी में पहला आरा दुःखमा दुःखमी होता है और फिर उलटे क्रम से कहना, इसका छट्ठा आरा सुखमा सुखमी होता है। अवसर्पिणी काल के 6 आरे :प्रथम सुखमासुखमी आरे में मनुष्य अत्यंत सुखी होते है, इसलिये | १९रा