________________ आगम निबंधमाला ४-अपवर्तन-अपकर्ष,५-संक्रमण,६-उदय,७-उदीरणा, ८-उपशमन, ९-निद्धत्त, १०-निकाचित और ११-अबाधाकाल / (1) बन्ध- आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध होना, क्षीरनीरवत् एकमेक हो जाना बंध है / (2) सत्ता- बद्ध-कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से प्रथक नहीं हो जाते तब तक वे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं / इसे जैन दर्शानिकों ने सत्ता कहा है / (3) उद्वर्तन-उत्कर्ष- आत्म परिणामों में कषाय की तीव्र एवं मंद धारा के अनुसार कर्म की स्थिति और अनुभाग-बंध होता है उसके पश्चात् समय समय पर होने वाले भाव-विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में जो वृद्धि होती है वह उद्वर्तन-उत्कर्ष है। (4) अपवर्तन-अपकर्ष- पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को उद्वर्तन से विपरीत अर्थात् न्यून कर देना अपवर्तन-अपकर्ष है। . इन दोनों अबस्थाओं का सारांश यह है कि संसार को घटानें बढ़ाने का आधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर भी विशेष आधारित है। (5) संक्रमण- एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपरमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं / इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित्त मर्यादाएँ हैं अर्थात् अमुक अमुक में ही आपस में परिवर्तन होता है / वह संक्रमण चार प्रकार का है- (1) प्रकृतिसंक्रमण (2) स्थिति-संक्रमण (3) अनुभाव-संक्रमण (4) प्रदेशसंक्रमण / .... . (6) उदय- कर्म का फलदान उदय है / यदि कर्म अपना फल देकर निर्जीर्ण हो तो वह फलोदय विपाकोदय है और फल दिये बिना ही उदय में आकर नष्ट हो जाय तो वह प्रदेशोदय है / (7) उदीरणा- नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है / जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से आम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना के द्वारा बद्ध कर्म को नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है। सामान्यत: यह नियम है कि जिस कर्म का 177