________________ आगम निबंधमाला .... उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है। . . (8) उपशमन- कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं हो किन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण की संभावना हो, वह उपशमन है जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर सके। किन्तु जैसे आवरण के हटते ही अंगारे जलने लगते हैं वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारंभ कर देते हैं / (9) निधत्ति- जिसमें उद्वर्तन अपवर्तन होना संभव हो किंतु उदीरणा या सक्रमण नही हो सकता हो वह निधत्त है / (10) निकाचित- जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित है अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है, प्राय: उसी रूप में भोगना पड़ता है। भोगे बिना उसकी निर्जरा या परिवर्तन नहीं होता है। (11) अबाधाकाल- कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम अबाधाकाल है / इस काल में प्रदेशोदय भी नहीं होता है / अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने सागरोपम की है, उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है / जैसे-ज्ञानावरणीय की स्थिति उत्कृष्ट तीस कोटाकोटि सागरोपम की है तो उसका उत्कष्ट अबाधाकाल तीस सौ(तीन हजार) वर्ष का है। भगवती सूत्र में अष्ट कर्म प्रकृतियों का भी अबाधाकाल स्पष्ट किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को उक्त आगम देखने चाहिए। अबाधाकाल में निषेक रचना :- सात कर्मों के अबाधाकाल जितने स्थिति बंध के साथ प्रदेश बंध नहीं होता है / आयुष्य कर्म में अबाधाकाल के स्थिति बंध के साथ प्रदेश बंध अर्थात् कर्म पुद्गलों का भी बंध होता है। __ अत: सात कर्मों के अबाधाकाल की निषेक रचना में और आयुष्य कर्म के अबाधाकाल की निषेक रचना में कुछ अंतर होता है / 178