________________ आगम निबंधमाला / सार :- कर्म बंध से डरते हुए मुमुक्षु आत्माओं को सदा पर निंदा वं पाप से बचते रहता चाहिये / किसी के भी तिरस्कार या अवहेलन में रस नहीं लेना चाहिये किन्तु सावधानी सतर्कता के साथ पर निंद करने कराने से एवं सुनने से भी बचते रहना चाहिये / ऐसा करने स कितने ही व्यर्थ के कर्मबंध से आत्मा सुरक्षित रह सकती है / . अवगुण उर घरिये नहीं, जो हो वक्ष बबूल / गुण लीजे कालू कहे, नहीं छाया में सूल // .. निबंध-४७ पाप-पुण्य विचारणा कार्मणवर्गणा के पुद्गल, जीव के साथ बद्ध होने के पहले सभी समान स्वभाव वाले होते हैं, किन्तु जब उनका जीव के साथ बन्ध होता है तो उनमें जीव के योग के निमित्त भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं / वही स्वभाव जैनागम में कर्मप्रकृति के नाम से प्रसिद्ध है / ऐसी प्रकृत्तियाँ मूल में आठ हैं और फिर उनके अनेकानेक अवान्तर भेद-प्रभेद हैं / विपाक की दृष्टि से कर्मप्रकृतियाँ दो भागों में विभक्त की गई है- अशुभ और शुभ / ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्मों की सभी अवान्तर प्रकृतियाँ अशुभ है / अघातिकर्मों की प्रकृतियाँ दोनों भागों में विभक्त हैं- कुछ अशुभ और कुछ शुभ / अशुभ प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ कहलाती हैं, जिनका फल-विपाक जीव के लिए अनिष्ट, अकांत, अप्रिय एवं दुःखरूप होता है / शुभ कर्म-प्रकृतियों का फल इससे विपरीत यानी इष्ट, कान्त, प्रिय और सांसारिक सुख को उत्पन्न करने वाला होता है। दोनों प्रकार के फल विपाक को सरल, सरस और सुगम रूप में समझाने के लिए विपाकसूत्र के दृष्टांत अत्यन्त उपयुक्त यद्यपि यह सत्य है कि पाप और पुण्य दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर ही जीवों को मुक्ति की प्राप्ति होती है, तथापि दोनों प्रकार की प्रकृतियों में कितना और कैसा अंतर है, यह तथ्य विपाक सूत्र में वर्णित कथानकों के माध्यम से समझा जा सकता है / [172