________________ आगम निबंधमाला पाप की प्रबलत के जीवन :- दु:खविपाक के कथानायक मृगापुत्र आदि भी अन्त में मुक्ति प्राप्त करेंगे और सखविपाक में उल्लिखित सुबाहुकुमार आदि को भी मुक्ति प्राप्त होगी। दोनों प्रकार के कथानायकों की चरम स्थिति एक सी होने वाली है / तथापि उससे पूर्व संसार परिभ्रमण का जो चित्रण किया गया है, वह विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है। पापाचारी मृगापुत्र आदि को दिल दहलाने वाली, घोरतर, दु:खमय दुर्गतियों में से दीर्घ-दीर्घतर काल तक गुजरना होगा। अनेकानेक बार नरकों में, एकेन्द्रियों में तथा दूसरी अत्यन्त विषम एवं त्रासजनक योनियों में दुस्सह वेदनाएँ भुगतनी होगी, तब कहीं जाकर उन्हें मानव-भव पाकर सिद्धि की प्राप्ति होगी। पुण्य की प्रबलता में सुखमय जीवन:- सुखविपाक के कथानायक सुबाहुकुमार आदि को भी दीर्घकाल तक संसार में रहना होगा किन्तु उनके दीर्घकाल का अधिकांश भाग स्वर्गीय सुखों के उपभोग में अथवा सुखमय मानवभव में ही व्यतीत होने वाला है / वे घोर अनिष्टकारी दुःखदायी कर्मों का उपार्जन नहीं करते हैं अत: दू:खों से दूर ही रहते हैं। पुण्यकर्म के फल से होने वाले सुखरूप विपाक और पापाचार के फलस्वरूप होने वाले दु:खमय विपाक की तुलना करके देखने पर ज्ञात होगा कि पाप और पुण्य दोनों बन्धनात्मक होने पर भी दोनों के फल में अन्धकार और प्रकाश जैसा अन्तर है / अत: संसार भ्रमण काल में समय व्यतीत करने की अपेक्षा पुण्य उपादेय है और पाप हेय है। यह सत्य है कि मुमुक्षु साधक एकांत संवर और निर्जरा के कारणभूत वीतराग भाव में रमण करना ही उपादेय मानता है फिर भी स्वभावंत: उनके साथ पुण्य प्रकृत्तियों का संग्रह भी हो जाता है / ___अत: संयमी जीवन में पुण्य संचय के लक्ष्य की आवश्यकता नहीं है / वह संवर निर्जरा के साथ स्वत: जुड़ा रहता है किन्तु गहस्थ जीवन आरंभ एवं परिग्रह में व विषय कषाय में संलग्न होता है अत: वहाँ संवर निर्जरा के साथ-साथ जीवन में पुण्य के कत्य भी उपादेय हो जाते हैं / यों देखा जाय तो संसार में पुण्य साथ है तो उसके सब कुछ साथ है / पुण्य की प्रबलता है तो अनेक अपराध भी दब जात हैं वह व्यक्ति सर्वत्र सफलता ही प्राप्त करता है। और यदि पुण्य की [173]