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________________ आगम निबंधमाला . . या आढत का, भाडा अथवा ब्याज से कमाई करते हो / मणिसागर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ था वह बोला- आपने जितने कार्य कहे हैं उनमे का एक भी कार्य में नहीं करता हूँ। चोरी कार्य ही मेरा भडार भरता है दूसरे व्यापारी सब मेरे लिए ही धंधा करते हैं मुझे व्यापार करने की कोई जरूरत नहीं है। राजा ने पूछा महीने में कितनी बार चोरी करते हो? उसने स्पष्ट उत्तर दिया कि 30 बार अर्थात् सदा ही चोरी करना मेरा प्रमुख कार्य है / उसकी स्पष्टवादिता पर राजा हैरान था / उसने पूछा अच्छा बताओ कल रात्रि में कहां चोरी की, कौन मिला और क्या चोरी की ? उत्तर में सारी सत्य हकीकत बता दी / राजा ने पूछा यह चोरी करके सत्य बोलना कैसे सीखा ? कह दिया गुरूकृपा हो गई, असत्य बोलने का त्याग करा दिया, तब से सत्य बोलता हूँ, प्राण भले ही क्यों न निकल जाय / राजा ने उसे छोड दिया कि कल बुलाऊँगा / पुण्य और पाप दोनों को जितना अधिक छिपाया जाता है वह कई गुना बढ़कर सामने आता है / राजा ने खजांचियों को बुलाया और पूछा- बताओ कितनी पेटियाँ चोरी में गई ? दबी जबान से सभी बोले तीन / राजा ने तलवार निकालकर कहा सच बोलो नहीं तो अभी देता हूँ तुमको जन्म नवीन / भय के मारे सत्य बात कह दी। राजा ने सभी खजाचियों को अत्यंत अपमानित करके देश निकाला दे दिया। दूसरे दिन मणिसागर को बुलाया / सन्मान सहित राजा ने अपने पास सिंहासन पर बिठाया और कहा कि अब यह चोरी करना भी त्याग कर दो। मणिसागर का वही उत्तर था जो अपने पिता और मंत्री को दिया था। तब राजा ने उसे प्रधान मंत्री का पद दिया, जिसे वचन बद्ध होने के कारण उसे स्वीकार करना ही पड़ा। कुछ दिन बीतने के बाद एक समय राजा पूछ लेता है- कहो मंत्रीश्वर ! अब चोरी का धंधा कैसा चल रहा है ? उसने कहा अब क्या खाक चोरी करूं, फुरसत एक क्षण की भी नहीं मिलती। राज सिपाही सदा साथ लगे रहते हैं / मुझे अकेले कभी भी कहीं भी नही फिरने देते हैं / | 166
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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