________________ आगम निबंधमाला जैसा पाठ है उसमें कल्पितता और प्रक्षिप्तता के लक्षण भी स्पष्ट दिख रहे है। क्योंकि शाश्वत देवलोकों के स्थानों में जब 108 बिना नाम की प्रतिमाएँ भीतरी भाग में मौजूद है। वहाँ गेट(दरवाजा)के बाहर के विभाग में असंगत स्थान में, वह भी स्तूप की तरफ ही चारों प्रतिमाओं का मुख होना बताया गया है, साथ ही वर्तमान चौवीसी के ऋषभ और वर्धमान का नाम उनके लिये लगाया गया है तथा ऐरवत क्षेत्र के प्रथम और अंतिम तीर्थंकर का नाम भी जोड़ा गया है। शाश्वत प्रतिमाओं में चौथे आरे के चार तीर्थंकरों का नाम लगाना भी इस पाठ की काल्पनिकता और प्रक्षिप्तता को प्रगट करता है। इन चारों प्रतिमाओं का माप भी जिन शब्दों में कहा गया है वह वर्धमान और ऋषभ तीर्थंकरों से अघटित होता है। क्योंकि शाश्वत स्थानों की प्रतिमाएँ भिन्न भिन्न अवगाहना की नहीं हो सकती और एक सरीखी हो तो ऋषभ और वर्धमान की अवगाहना का सुमेल कैसे हो सकेगा? क्योंकि ऋषभदेव की 500 धनुष की अवगाहना थी एवं वर्धमान स्वामी की सात हाथ की अवगाहना थी। इस प्रकार स्पष्ट रूप से यह ध्वनित होता है कि स्तूप के पास चार प्रतिमाओं का वर्णन अस्थानीय, काल्पनिक और प्रक्षिप्त है / . (14) तीर्थंकर भगवंतों को एवं श्रमणों को परोक्ष वंदन णमोत्थुणं के पाठ से किया जाता है, चाहे श्रावक करे या देव करे, चाहे देव सभा में करे, राज सभा में करे, पाषधशाला या घर में करे / इन्हें ही प्रत्यक्ष में वंदन तिक्खुत्तो के पाठ की विधि से किया जाता है, चाहे श्रावक हो या देव। सिद्धों को वंदन सदा णमोत्थुणं के पाठ से किया जाता है। ये निर्णय प्रस्तुत सूत्र के प्रसंगों से एवं अन्य सूत्रों में आये प्रसंगों से प्राप्त होता है। मोक्ष प्राप्त तीर्थंकरों को सिद्ध पद में वंदन किया जाता है / इस विषय में जो भी रूढ़ परंपराएँ है उनका सूत्राधार से पुनः चिंतन कर अवश्य सुधार करना चाहिए। इच्छामि खमासमणो के पाठ से उत्कृष्ट वंदन केवल प्रतिक्रमण वेला में किया जाता है, अन्य समय में या अन्यत्र कहीं भी इस उत्कृष्ट विधि से वंदन नहीं किया जाता है। किंतु तिक्खुत्तो के पाठ की विधि अथवा णमोत्थुणं पाठ की विधि से वंदन किया जाता है / अतः सर्वत्र सर्वदा तिक्खुत्तो के पाठ से वंदन करना या सर्वत्र सर्वदा इच्छामि खमासमणो के अधूरे या पूरे पाठ से वंदन करना, एकांतिक आग्रह वाली रूढ़ परंपरा है। 146