SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला अतिरिक्त भी सूर्याभ देव के द्वारा पूजा किये एवं पूजा कराये गये उन स्थानों के नाम(दरवाजे, थंभे आदि) शास्त्र में संकलित है। इन सब स्थानों की पूजा अर्चा करने से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि देव अपने मंगल एवं जीताचार से ही वे सब कृत्य जन्म समय में करते हैं। मनुष्यलोक में वे देव धर्म दृष्टि से तीर्थंकरों श्रमणों के दर्शन सेवा आदि के लिये आते है किन्तु किसी मंदिर या तीर्थस्थान का दर्शन करने सेवा भक्ति पूजा करने आने का वर्णन किसी शास्त्र में नहीं है और धर्मदृष्टि से आते वक्त कभी वहाँ देवलोक में रही उन मूर्तियों के दर्शन पूजा करके नहीं आते। केवल जन्म समय में ही यह सब उनके जीताचार की, मंगल कर्तव्यों की विधि होती है, इसीलिये वे इस सूत्र में वर्णित सभी कुछ कृत्य करते हैं। अतः देव के इन मात्र जन्म समय के जीताचारमय कृत्यों को श्रावकाचार या साध्वाचार से जोड़ना कदापि उपयुक्त नहीं है। (12) युगप्रधान, चार ज्ञान से संपन्न केशी श्रमण ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान की परंपरा के होते हुए भी प्रदेशीराजा को किसी भी तीर्थ स्थल के पार्श्वनाथ भगवान की पूजा करने का या लाखों करोड़ों की लागत के मंदिर बनवाने का संकेत नहीं दिया। शंखेश्वर आदि किसी भी पार्श्वनाथ भगवान के किसी भी तीर्थों पर जाने का संकल्प भी नहीं कराया, न स्वयं प्रदेशी ने ही ऐसा संकल्प किया। इससे स्पष्ट है कि उस काल में स्थावर तीर्थ, मंदिर एवं मूर्तिपूजा का प्रचलन तथा उसकी प्रेरणा जैन साधु एवं श्रावक समाज में नहीं थी। इन्हीं आगम वर्णित कथानकों के राजाओं एवं श्रावकों के साथ अर्वाचीन ग्रंथों में मूर्ति मंदिर के ढ़ेर सारे वर्णन जोड़ दिये गये हैं। जो सूत्र से अतिरिक्त प्ररूपण के दोष से दूषित एवं मनःकल्पित है और ऐसा करना अनंत संसार बढाने के कर्तव्य में आता है। (13) सूर्याभ विमान की सुधर्मा सभा के वर्णन में सिद्धायतन का वर्णन है। उसमें 108 जिन प्रतिमाओं का वर्णन है। उन प्रतिमाओं की सूर्याभ देव ने जन्म समय के जीताचार में विधिवत् पूजा भक्ति की है। किन्तु सुधर्मासभा के बाहर स्तूप के वर्णन के साथर जो जिन प्रतिमाओं का कथन मूलपाठ में उपलब्ध है, वह स्थानीय नहीं है। क्योंकि अंदर के विभाग में 108 प्रतिमाओं को जो सन्मान है वह यहाँ संभव नहीं है तथा यहाँ | 145
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy