________________ आगम निबंधमाला विधि (तिक्खुत्तोके पाठ मय), क्षेत्र स्पर्शने की आग्रह युक्त विनंती, साधु भाषा में स्वीकृति, श्रावक के बारह व्रत धारण, पौषध स्वीकार, श्रमण निग्रंथों के साथ व्यवहार, दूर क्षेत्रवर्ती श्रमणों को वंदन विधि, बगीचे में पधारने पर भी चित्त के द्वारा पहले तत्काल घर में वंदन विधि, प्रदेशी का संथारा ग्रहण एवं उस समय भी सिद्धो को एवं गुरु को वंदन, स्वयं ही संथारा ग्रहण करना आदि धार्मिक कृत्यों का वर्णन किया गया है। यह श्रावक जीवन के श्रेष्ठ आचारों का संकलन है। साथ ही जन सेवा की भावनामय राज्य आवक का चौथा भाग दानशाला के लिए लगाने रूप आचार विधि का वर्णन भी धार्मिक जीवन के अंग रूप में किया गया है / (11) ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्रावक जीवन के त्याग तपोमय वर्णन में कहीं भी मंदिर मूर्ति बनाने या पूजा विधि करने अथवा . अनेक मंगल मनाने संबंधी किंचित् भी वर्णन नहीं है। ऐसे विषयों को श्रावक जीवन से नहीं जोड़कर. सूत्र के पूर्व विभाग में देव भव से जोड़ा गया है। मनुष्य लोक एवं राजधानी या नगरी में ऐसे श्रावकों के परिग्रह उपकरण एवं आधिपत्य की सामग्री में एवं जीवन चर्या में मंदिर आदि के विस्तृत विषयों को नहीं जोड़ कर देवलोक के विमानों से जोड़ा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मूर्ति पूजा श्रावकाचार एवं श्रमणाचार नहीं है। देवलोक के सभी स्थान शाश्वत है उसे किसी ने कभी बनाया नहीं है अतः वहाँ किसी की भी व्यक्तिगत मूर्ति होना संभव नहीं है / क्योंकि अनादि वस्तु में किसी वर्तमान व्यक्ति के नाम की कल्पना करना असंगत होता है। इसलिए कि व्यक्ति कोई अनादि नहीं होता है। अतः अनादि स्थानों में देव अपने जन्म समय में लोक व्यवहार आचार के पालन करने हेतु ये पूजा आदि कृत्य करते हैं। क्यों कि एक ही सूत्र के दो प्रकरणों में श्रावकाचार युक्त वर्णन में मंदिर मूर्ति एवं मूर्ति पूजा को निग्रंथ धर्म के आचार में किंचित् भी स्थान नहीं दिया जाकर, जीताचार से देवलोक के सभी छोटे बड़े स्थानों को एवं यक्ष भूत आदि सभी अपने से निम्नस्तरीय सामान्य देवों के बिम्बों की अचा पानी फूल आदि से की है, चंदन के छापे आदि लगाये हैं / मूर्तियों के 144