________________ आगम निबंधमाला ने अपना धर्म आराधन कर देव भव पाया एवं साथ ही सदा के लिए संसार भ्रमण से मुक्त होने का सर्टीफीकेट प्राप्त कर लिया। एक कवि के शब्दों में जहर दिया महाराणी, राजा परदेशी पी गया / विघटन पाप का किया, रोष को निवारा है // विपदाओं के माध्यम से, कर्मों का किनारा है / डरना भी क्या कष्टों से, महापुरुषों का नारा है // (9) आत्मा जैसी अरूपी तत्त्वों को श्रद्धा से समझना एवं स्वीकार करना चाहिए। प्रत्यक्ष का आग्रह सूक्ष्मतम तत्त्वों के लिए नहीं करना चाहिए। वैसे ही तर्क अगोचर अर्थात् तर्क के अविषय भूत कई अन्य तत्त्वों को भी श्रद्धा से ही स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही परंपरा से प्राप्त कोई भी सिद्धांत या रूढ़ियाँ हो, उसके विषय में वास्तविकता का बोध होने के बाद पूर्वजों की दुहाई देकर अपनी हेय वृत्तियों का पोषण नहीं करना चाहिये। चाहे वह कोई भी परंपरा हो, सिद्धांत का रूप ले चुका हो, आचार का विषय हो या किसी भी प्रकार का इतिहास का विषय हो, तो भी यदि असत्य, कल्पित, अनागमिक, असंगत है; तो वैसी किसी भ्रम से चली बातो, तत्त्वो, आचारों या परंपराओ का दुराग्रह नहीं रखना चाहिए और उसे रखने के लिए संबल रूप में पूर्वजों की दुहाई नहीं देकर सत्य बुद्धि से निर्णय एवं परिवर्तन करने में नहीं हिचकना चाहिये। यह प्रेरणा केशीस्वामी ने प्रदेशीराजा को लोहवणिक का दृष्टांत देकर दी थी और प्रदेशी ने स्वीकार किया कि अब मैं ऐसा करूँगा जिससे मुझे लोहवणिक के समान पश्चाताप नहीं करना पड़ेगा। इस आदर्श को सामने रखते हुए प्रत्येक साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका तथा संघों को इमानदारी पूर्वक परंपरा के व्यामोह से चीपके रहने के मानस का परिवर्तन करना ही सच्ची धार्मिकता एवं अनाग्रहवृत्ति को धारण करना कहलायेगा। परंतु अपनी शान के लिये आग्रहवृत्ति का पोषण नहीं करना चाहिये अन्यथा खोटी शान रखने वाले मूर्खराज लोहं वणिक की उपमा लग जायेगी। (10) प्रदेशीराजा और चित्त सारथी के धार्मिक श्रमणोपासक जीवन क वर्णन में मुनि दर्शन, सेवाभक्ति, व्याख्यान श्रवण, पाँच अभिगम, वंदन [143]