________________ आगम निबंधमाला पौषध आदि की उपेक्षा करते हैं, वे भी एक चक्षु की कोटि में आकर निग्रंथ धर्म से दूर होते हैं एवं कई श्रावक आध्यात्म धर्म में अग्रसर होकर संपन्न होते हुए भी संकीर्ण दिल या संकीर्ण दायरे के बने रहते हैं, श्रमण या श्रमणभूत नहीं होते हुए भी एवं गृहस्थ धर्म में या संसार व्यवहार में रहते हुए भी दया, दान, मानव सेवा, जन सेवा, उदारता के भावों से उपेक्षित रहते हैं, उनकी गृहस्थ जीवन की साधना एक चक्षु भूत रहती है। इस कारण से कि वे छती शक्ति (प्राप्त संपत्ति से) धर्म की प्रभावना में सहायभूत नहीं बन सकते हैं। . .. इस प्रकार इस सूत्र के अंतिम प्रकरण से श्रावकों को उभय चक्षु बनने की प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिये। अर्थात् आध्यात्म धर्म की साधना के साथ छती शक्ति अनुकम्पादान आदि की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। अपितु अपनी स्टेज के अनुसार दानधर्म में प्रवृत्त होना चाहिये। जैसे कि- प्रदेशीराजा ने राज्य की आवक का चौथा भाग दया, दान-धर्म में सुनियोजित किया था / (5) श्रमण वर्ग को केशी श्रमण के इस चर्चा व्यवहार और दक्षता से अनुपम प्रेरणा लेनी चाहिए कि किस तरह दुराग्रही प्रश्नकर्ताओं को भी संतुष्ट किया जा सकता है। हृदय की एवं भावों की पवित्रता रखना ही इसमें अमोघ शक्ति रूप है। ऐसे प्रकरणों के बारंबार स्वाध्याय मनन करने से बुद्धि कौशल एवं तर्क शक्ति का विकास होता है। ... (6) केवलज्ञानी भगवंत भी अंतिम समय में बहुत दिनों का संथारा पचक्खाण सहित करते हैं यह भी प्रदेशी के भावी भव दृढ़प्रतिज्ञ के वर्णन से स्पष्ट होता है / (7) कथाग्रथों एवं व्याख्याग्रंथों में प्रदेशी श्रमणोपासक के बेले-बेले पारणा करके 40 दिन की श्रमणोपासक पर्याय में आराधक होने का वर्णन मिलता है। यह स्पष्टीकरण सूत्र में उपलब्ध नहीं है। (8) पापकर्म का उदय आने पर अपना गिना जाने वाला व्यक्ति भी वैरी बन जाता है। अतः संसार में किसी के साथ मोह प्रतिबंध करना योग्य नहीं है। बिना अपराध के प्राणघात कर देने वाले के प्रति भी द्वेष भाव लाने से स्वयं के तो कर्मो का बंध ही होता है और समभाव रख लेने पर अपना कुछ भी अहित नहीं होता है। इसी आभ्यंतर प्रेरणां वाक्यों से प्रदेशी | 142