________________ आगम निबंधमाला इसी कारण पत्र का नाम भी राणी के नाम पर सर्यकांतकमार रखा था। फिर भी राजा के किसी भव के निकाचित घोर कर्मों का उदय आ पहुँचने से रानी को ऐसी कुमति हुई। जीव अज्ञानदशा में उतावलपन में ऐसे कई अकार्य कर जाते हैं जिससे उनको लाभ कुछ भी नहीं होता है। फिर भी वे केवल अपने उठे हुए संकल्पों को पूर्ण करने में दत्तचित्त बन जाते हैं। यह भी जीव की एक अज्ञानदशा का पागलपन है। ऐसे कर्तव्य करने वाले यहाँ भी अपयश पाकर हानि में रहते हैं और आगे के भवों को बिगाड़ कर के दुःख की परंपरा बढ़ाते हैं। (3) धर्म की सही समझ हृदय में उतर जाने के बाद राजा हो या प्रधान, श्रावक के बारह व्रत धारण करने में कहीं भी बाधा नहीं आती है। अतः धर्मप्रेमी जो भी आत्माएँ संयम स्वीकार नहीं कर सकती है उन्हें श्रावक व्रत धारण करने में किंचित् भी आलस्य, प्रमाद, लापरवाही, उपेक्षावृत्ति नहीं करनी चाहिए / हमारे सामने चित्तसारथी और राजा प्रदेशी का महान आदर्श उपस्थित है। एक (चित्त) तो अन्य राज्य में राज्य व्यवस्था के लिये गया था, वहीं बारह व्रतधारी बना और दूसरा(राजा) अश्व परीक्षार्थ निकला हुआ भी मुनि सत्संग से उसी दिन बारह व्रतधारी श्रावक बना। आज के हमारे वर्षों के धर्मिष्ठ लोग जो बारह व्रतधारी नहीं बन रहे हैं, उन्हें इस सत्र की स्वाध्याय से प्रेरणा पाकर अवश्य बारह व्रत धारण करने चाहिये। श्रावकव्रत धारण करने में बाधा डालने वाली मानसिक जिज्ञासाओं के समाधान के लिये पढ़ें- आगम सारांश का पुष्प 15, उपासक दशा सूत्र / (4) आध्यात्म धर्म के साथ साथ गृहस्थ जीवन में अनुकम्पादान एवं मानवसेवा का अनुपम स्थान है, यह भी इस सूत्र के अंतिम शिक्षावचन प्रकरण में देखने को मिलता है। प्रदेशी श्रमणोपासक ने अपने धर्मगुरू धर्माचार्य श्री केशीश्रमण के रमणिक रहने की प्रेरणा के फल स्वरूप जो संकल्प प्रकट किया था, कथनी और करणी को एक साकार रूप दिया था, वह था आध्यात्मजीवन के साथ श्रमणोपासक की अनुकम्पा और मानव सेवा या जन सेवा भावना ।अनेकांतवादमय यह निग्रंथ प्रवचन एक चक्षु से नहीं चलता है, किन्तु यह उभय चक्षु प्रवर्तक है। कई लोग धर्म का रूप केवल मानव सेवा ही लेते हैं, व्रत नियम, बारह व्रत, [14