________________ आगम निबंधमाला . . शिक्षा संकेत- हे प्रदेशी ! जिस प्रकार उद्यान, इक्षु खेत, खलिहान और नृत्यशाला आदि कभी रमणीय होती है और कभी अरमणीय भी हो जाते हैं वैसे तुम धर्म की अपेक्षा रमणीय बनकर पुनः अरमणीय मत बन जाना / केशीश्रमण के इस संकेत शिक्षा को स्वीकार करते हुए प्रदेशीराजा ने कहा- भंते ! मैं श्वेतांबिका प्रमुख सात हजार ग्राम नगरों की आवक को चार विभागों में विभक्त कर दूंगा / 1. राज्य व्यवस्था में 2. भंडार में 3. अतःपुर के लिए 4. दानशाला के लिए। दानशाला की व्यवस्था के लिए सुंदर कूटाकार मकान एवं नौकर नियुक्त कर दूँगा। जिसमें सदा गरीबों को या अन्य याचकों भिक्षाचरों को भोजन आदि की सुन्दर व्यवस्था रहेगी। इसके अतिरिक्त मैं स्वयं भी व्रत पच्चक्खाण पौषध एवं धर्म जागरण करते हुए उत्तरोत्तर धर्माराधन में वृद्धि करूँगा। इस प्रकार प्रदेशी ने द्रव्य भाव से पूर्ण रूपेण जीवन परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार अमावस से पूनम जैसे जीवन में आकर अर्थात् महान अधर्मी जीवन को आदर्शधर्मी जीवन में बदलकर ही प्रदेशी राजा ने ऐसे दिव्य देवानुभाव और महान ऐश्वर्य को प्राप्त किया / देव भव की चार पल्योपम की उम्र पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर, राज्य ऋद्धि का त्याग करके बाल ब्रह्मचारी दृढ प्रतिज्ञ नामक श्रमण बनेगा। बहुत वर्ष केवली अवस्था में विचरण करेगा एवं अंतिम समय अनेक दिनों के संथारे से निर्वाण को प्राप्त करेगा, सदा सदा के लिए जन्म मरण के भवचक्र से मुक्त हो जायेगा। निबंध-४० प्रदेशी राजा के जीवन से शिक्षा-ज्ञातव्य (1) चित्त सारथी एवं केशी श्रमण के अनुपम आदर्श ने एक दुराग्रही पापिष्ट मानव को, जिसके कि हाथ खून से सन रहने की उपमा सूत्र में लगाई गई है उसे, एक बार की संगति एवं संवाद रूप विशद चर्चा ने महान् दृढ़धर्मी प्रियधर्मी बना दिया / (2) केशी श्रमण का उपदेश सूर्यकांता महारानी ने भी सुना था और वह राजा जितनी पापिष्ठ भी नहीं थी, राजा को भी अत्यंत प्रिय ईष्ट थी। [140