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________________ आगम निबंधमाला नगरी में आने पर सभी साथी वणिकों ने हीरे रत्नों के मूल्य से अखूट धन सामग्री प्राप्त की और विशाल संपत्ति के मालिक बन कर अपार आनंद सुखचेन में अपना समय व्यतीत करने लगे। किन्तु लोहवणिक केवल लोहे के मूल्य जितना धन प्राप्त कर मकान संपत्ति आदि से पूर्ववत् बना रहा एवं उन साथियों के विशाल बंगले और ऋद्धि देख देख कर पश्चात्ताप के दुःख से संतप्त रहने लगा। वणिक होकर भी उस लोहवणिक ने हानि लाभ सत्यासत्य का विचार नहीं किया, पूर्वाग्रह में रहकर उसने पश्चात्ताप को प्राप्त किया। वैसे ही हे राजन्! तू बुद्धिमान होकर एवं सब कुछ समझ लेने के बाद भी सत्यासत्य के निर्णय पूर्वक सत्य स्वीकार करना नहीं चाहता है तो उस लोह वणिक के समान होगा। (कई लोग सामान्य बुद्धि भेड़ चाल प्रकृति के होते है जो रूढ़ियों को अपने पूर्वजों के नाम से चलाते रहते हैं, उसी में वे अपना दिखावावृत्ति एवं अहंभाव का पोषण करते है। किन्तु वास्तव में वे अत्यंत निम्न दर्जे की बुद्धि वाले एवं प्रतिष्ठा हीन व्यक्ति होते हैं।) राजा का परिवर्तन- केशीकुमार श्रमण के निर्भीक एवं सचोट वाक्यों ने तथा तर्कसंगत दृष्टांतों ने उसके आग्रहपूर्ण विचारों में परिवर्तन ला दिया। चित्त सारथी का प्रयत्न एवं सूझ-बूझ सफल रही। राजा ने वंदना नमस्कार करके मुनि से निवेदन किया कि भंते! मैं ऐसा नहीं करूँगा कि लोह वणिक की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े। अब मैं आप से धर्म श्रवण करना चाहता हूँ। केशीश्रमण ने समयोचित धर्मोपदेश दिया। जिससे प्रदेशी राजा व्रतधारी श्रमणोपासक बन गया। दूसरे दिन अपने परिवार एवं संपूर्ण ऐश्वर्य सहित केशीश्रमण के दर्शनार्थ आया। पाँच प्रकार के अभिगम सहित उनके अवग्रह में प्रवेश किया, विधि युक्त वंदन नमस्कार किया और पूर्व दिन में अपने द्वारा किए गये अविनय आशातना के लिए पूर्ण भक्तिभाव पूर्वक हार्दिक क्षमायाचना की। एवं उपदेश सुनने के लिए विशाल परिषद के साथ वहाँ केशी श्रमण के समक्ष बैठ गया। केशीश्रमण ने प्रदेशीराजा को एवं उसकी सूर्यकांता प्रमुख राणियों को एवं विशाल परिषद को लक्ष्य कर उपदेश दिया। उपदेश सुनकर आई हुई परिषद् विसर्जित हुई। केशीश्रमण ने प्रदेशीराजा को संबोधित कर कुछ भलावण रूप शिक्षा वचन कहे / [139
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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