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________________ आगम निबंधमाला तो उसका प्रकाश कोठी में भी समाविष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि रूपी प्रकाश में यह संकोच विस्तार का गुण है। वैसे ही आत्मा के प्रदेश निश्चित परिमाण वाले एवं संकोच विस्तार हो सकने वाले है। वे जिस कर्म के उदय से जैसा और जितना शरीर प्राप्त करते हैं.बनाते हैं. उस शरीर में ही व्याप्त होकर के रहते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं आती है। अतः हे राजन्! तुम यह श्रद्धा करो की जीव अन्य है और शरीर अन्य है। जीव शरीर नहीं है और शरीर. जीव नहीं है। राजा- भंते ! आपने जो कुछ भी समझाया वह सब ठीक है किन्तु मेरे पूर्वज बापदादों से चला आया मेरा यह धर्म है कि जीव और शरीर एक ही है अलग से जीव कोई वस्तु नहीं है। तो अपने बापदादों का पीढ़ियों से मिला यह धर्म अब कैसे छोड़ दूँ। केशी- हे राजन्! तुम उस लोहवणिक के समान मूर्ख एवं हठी मत बनो, अन्यथा उसके समान तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। कुछ वणिक धन कमाने की इच्छा से यात्रार्थ निकले। मार्ग में बड़ी अटवी रूप जंगल में पहुँचे। वहाँ किसी स्थान पर उन्होंने लोहे की विशाल खान देखी। जिसमें बहुत सारा लोहा बिखरा हुआ पड़ा था। उन लोगों ने विचार विमर्श किया और लोहे का भारा सभी ने बांध लिया। आगे चले तो शीशे की खान आई। सब ने विचार कर लोहा छोड़ दिया और शीशा भर लिया। एक वणिक ने अनेक विध समझाने पर भी कहा कि इतनी दूर से बड़ी महेनत से जिसे उठाकर लाया हूँ मैं इसे यूँ ही नहीं छोड़ सकता। आगे चलने पर तांबे की, फिर चाँदी की और फिर सोने की खान आई। सभी वणिक पूर्व की वस्तु को हानि लाभ का विचार कर छोड़ते गये, अगली वस्तु लेते गये। किन्तु लोहवणिक उसी बात पर अड़ा रहा कि यह बार बार छोड़ना-लेना, अस्थिर चित्त का काम मैं नहीं कर सकता। अंत में रत्नों एवं हीरों की खान आई। सारे वणिक एक सलाह से हीरे भर कर आनंदित हुए और पुनः अपने देश के लिये लौटने का निर्णय कर लिया / उस लोह वणिक को फिर समझाने के लिये प्रयत्न किया किन्तु वह अपने जिद्द एवं व्यर्थ के अभिमान में अड़ा रहा और हीर भी नहीं लिये / / 138
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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