________________ आगम निबंधमाला सभी के होते हुए भी साधन रूप शरीर की अपेक्षा तो कार्य में रहती ही है। भार वहन के लिये भी नयी पुरानी जैसी कावड़ या रस्सी मजबूत होर्गी उसी के अनुपात से व्यक्ति भार वहन कर सकता है। साधन की मुख्यता से ऐसा होता है। इसलिये हे राजन्! इस तर्क से भी तुम्हारा आत्मा को भिन्न नहीं मानना असंगत है / राजा- एक बार मैंने एक व्यक्ति को जीवित तोल कर, तत्काल प्राण रहित कर. फिर तोला तो रंच मात्र भी उसके वजन में अंतर नहीं आया। आपकी मान्यतानुसार तो शरीर से भिन्न आत्म तत्त्व वहाँ से निकला ही होगा तो उसके वजन में कुछ भी अंतर आना चाहिये था। केशी- राजन् ! कोई मसक में हवा भर कर तोल किया जाय और फिर उसकी हवा निकाल कर वजन किया जाय तो उसमें कोई अंतर नहीं आता। आत्मा उस हवा से भी अत्यंत सूक्ष्म(अरूपी) तत्त्व है। अतः उसके निमित्त से वजन में कोई अंतर नहीं आ सकता। इसलिए हे राजन् ! तुम्हें यह श्रद्धा करनी चाहिए कि शरीर से आत्मा भिन्न तत्त्व है। . राजा- एक बार मने एक अपराधी को लेकर ऊपर, नीचे, अन्दर, बारीक टुकड़े टुकड़े करके देखा, तो भी कहीं जीव नहीं दिखा। अतः मैं यह मानता हूँ कि शरीर के अतिरिक्त जीव कोई चीज है नहीं / केशी- राजन्! तुम मूर्ख कठियारे से भी अधिक मूढ़ और विवेकहीन हो। एक बार कुछ लकड़ी काटने वाले साथी मिलकर जंगल में गये। एक नया व्यक्ति भी उस दिन साथ में हो गया। जंगल बहुत दूर था अतः खाना बनाना और भोजन करना, वे वहीं किया करते थे। साथ में थोड़ी अग्नि(अंगारे) ले जाते थे। आज उन्होंने नये व्यक्ति कठियारे से कहा कि तुम यही जंगल में बैठो, हम लकड़िय काट कर लाते हैं। तुम यथासमय खाना बनाकर रखना / कदाच अपने पास की अग्नि बुझ जाय तो यह अरणि काष्ट है उससे अग्नि जलाकर खाना तैयार करके रखना। लकड़ियाँ लेकर आते ही खाना खाकर हम सभी घर चलेंगे। उनके जाने के बाद यथासमय उस कठियारे ने खाना बनाने की तैयारी की। किन्तु देखा कि आग तो बुझ चुकी है। उसने काष्ट को उठा कर देखा तो उसमें कहीं अग्नि दिखी नहीं। आखिर उसन अरणि काष्ट के खंड़ खंड़ करके देखा तो भी कहीं अग्नि देखने में / 135