________________ आगम निबंधमाला नहीं आई। अग्नि बिना वह खाना नहीं बना सका और हताश होकर बैठ गया / जब वन में से कठियारे लकड़ियाँ लेकर आये तब उन्होंने दूसरी अरणि काष्ठ लेकर उन्हे आपस में घिस कर अग्नि पैदा की और खाना बनाकर खाया। उन्होंने उस नये कठियारे को कहा- रे मूर्ख ! तूं इस लकड़ी के टुकड़े टुकड़े करके इसमें अग्नि खोजना चाहता है ऐसे खोजने से अग्नि मिलती है क्या? इस प्रकार हे राजन्! तुम्हारी प्रवृत्ति भी उस मूर्ख कठियारे के समान हुई। राजा- भंते! आप सरीखे ज्ञानी बुद्धिमान विवेकशील व्यक्ति इस विशाल सभा में मुझे ऐसे तुच्छ हल्के एवं निष्ठुर शब्दों से अनादर पूर्ण व्यवहार करो क्या यह उचित है ? केशी- राजन्! तुम यह जानते हो कि परिषद कितने प्रकार की होती है? उसमें किसके साथ क्या व्यवहार किया जाता है ? किसको क्या दंड़ दिया जाता है ? फिर भी तुम मुझ श्रमण के साथ श्रमणोचित व्यवहार न करते हुए विपरीत तरीके से पेश आ रहे हो। तो तुम्हारे साथ ऐसी ही वाक्यावलि से मेरा उत्तर देना उपयुक्त है, यह तुम नहीं समझ सकते हो? राजा- अपना आशय स्पष्ट करते हुए राजा ने कहा कि मैं प्रारंभ के वार्तालाप से ही समझ गया था कि इस व्यक्ति(अर्थात् केशी श्रमण) के साथ जितना जितना विपरीत तरीके से व्यवहार करूँगा उतना ही अधिक से अधिक तत्त्वज्ञान प्राप्त होगा। इसमें लाभ होगा किन्तु नुकशान नहीं होगा। मैं तत्त्वज्ञान, सम्यग् श्रद्धान, सम्यक् चारित्र को प्राप्त करूँगा, जीव और जीव के स्वरूप को समझूगा। इसी कारण मैंने ऐसा विपरीत व्यवहार किया / राजा- हे भंते ! आप तो समर्थ है मुझे हथेली में रखे आँवले की तरह एक बार आत्मा को बाहर रख कर बता दो / केशी- हे राजन्! जो ये वृक्ष के पत्ते आदि हिल रहे है, वे हवा से हिलते हैं, तो हे राजन् ! तुम इस हवा को आँखों से देख नहीं सकते हो, किसी को हाथ में रखकर दिखा भी नहीं सकते हो, फ़िर भी हवा को स्वीकार तो करते ही हो। उसी प्रकार हे राजन् ! आत्मा हवा से भी / 136