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________________ आगम निबंधमाला है, देवलोक के प्रेम में लग जाते हैं / अथवा अभी जाऊँ, अभी जाऊँ, ऐसा सोचकर किसी नाटक, ऐशो-आराम में लग जाय तो इतने समय में तो यहाँ कई पीढियाँ बीत जाती है। अतः दादी के आने के भरोसे तुम्हारा ऐसा मानना उपयुक्त नहीं है / / राजा- भंते ! इसके अतिरिक्त भी मेरा अनुभव है कि शरीर से भिन्न कोई जीव तत्त्व नहीं है। एक बार मैने एक अपराधी पुरुष को लोहे की कुंभी में बंद करवा कर ढक्कन बंद करके उसके उपर गर्म लोहे, ताँबे से लेप करवा कर विश्वस्त व्यक्ति को वहाँ पहरेदार नियुक्त कर दिया। कुछ दिनों बाद उस कुंभी को खोला तो वह व्यक्ति मर गया था। किन्तु उस कुंभी के कहीं भी सूई की नोक जितना भी छिद्र नहीं हुआ था। यदि आत्मा कोई अलग वस्तु होती और उसमें से निकल कर कहीं जाती तो उस कुंभी में कहीं बारीक छिद्र भी होना चाहिए था किन्तु बहुत ध्यान से देखने पर भी उसमें किसी प्रकार का छिद्र नहीं मिला। अत: मेरी मान्यता पुष्ट हुई कि शरीर से अलग जीव कोई तत्त्व नहीं है। केशी- राजन्! कोई चौतरफ से बंद एक दरवाजे वाला कमरा है। दिवाले उसकी ठोस बनी हो, उसमें कुछ व्यक्ति बेंड़ बाजा ढ़ोल आदि लेकर अंदर घुस जावे। फिर दरवाजा बंद करके उस पर लेप आदि लगाकर पूर्ण रूप से निश्छिद्र कर दे। फिर अंदर रहे वे पुरुष जोर से ढोल, भेरी, बाजे आदि बजावे तो बाहर आवाज आएगी ? उसकी दिवालों आदि के कोई छिद्र होंगे? राजा- उसके कोई छिद्र नहीं होगा तो भी आवाज तो बाहर आयेगी / केशी- राजन् ! जैसे बिना छिद्र किये भी आवाज बाहर आ जाती है, तो आवाज से भी आत्मतत्त्व अतिसूक्ष्म है, उसकी अप्रतिहत गति है अर्थात् दिवाल या लोहे आदि की चट्टानों से जीव की गति नहीं रूकती है। अतः तुम यह श्रद्धा करो कि जीव शरीर से भिन्न तत्त्व है। (यहाँ पर कांच की पेक बंद शीशी में से कंकर की आवाज बाहर आने के दृष्टांत से भी समझा जा सकता है।) राजा- भंते ! एक बार मैंने एक अपराधी को मार कर तत्काल लोहकुंभी में बंद कर ढ़क्कन के लेप लगवा कर निश्छिद्र कर दिया। 133]
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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