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________________ आगम निबंधमाला में राजा का जीव सूर्याभविमान में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ वह शक्रेन्द्र का सामानिक देव बना अर्थात् इन्द्र के समान ही लगभग ऋद्धि एवं उम्र उसने प्राप्त की। वहाँ से भी आयुष्य पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर संयम तप की आराधना से संपूर्ण कर्म क्षय कर मुक्त होकर सिद्ध बनेगा। इस प्रकार एक ही बार की केशीस्वामी की सत्संगति से अधर्मी जीवन वाले राजाने अपने जीवन को ऐसा परिवर्तित किया कि नरक तिर्यंचगति भ्रमण के तो ताले ही लगा दिय एवं एक भव करके मोक्षगामी भी बन गया। निबंध-३८ चित्तसारथी द्वारा कर्तव्य पालन कुणाल देश की श्रावस्ति नगरी में जितशत्रु राजा रहता था / जो राजा प्रदेशी का अधीनस्थ राजा था। एक बार आवश्यक राज्य कार्यवश चित्तसारथी का राजा की आज्ञा से श्रावस्ति में जाना हुआ। वहाँ पर संयोगवश केशीश्रमण का सत्संग मिला। चित्त सारथी ने केशी श्रमण से श्रावक के 12 व्रत अंगीकार किये / क्रमशः विकास करते हुए वह श्रमणोपासक योग्य अनेक गुणों से संपन्न बन गया। राज्य कार्य पूर्ण कर पुनः श्वेतांबिका नगरी आना था। चित्त सारथी श्रमणोपासक ने केशीश्रमण को आग्रहभरी विनंती करी कि आप श्वेतांबिका नगरी में अवश्य पधारना / केशीश्रमण ने प्रदेशीराजा के पापिष्ट व्यवहारों को स्पष्ट करते हुए श्वेतांबिका नगरी में आने में प्रश्नचिन्ह रख दिया अर्थात् नामंजूरी के भाव व्यक्त किये / चित्त सारथी ने सारी स्थिति को स्वीकारते हुए पुनः निवेदन किया कि भंते ! अन्य भी अनेक लोग धर्मप्रेमी वहाँ रहते हैं, अकेले राजा के कारण उन लोगों को धर्म वंचित नहीं रखा जा सकता। वे लोग आपका आदर सत्कार करके दर्शन लाभ, प्रवचन लाभ अवश्य लेंगे और आहार पानी आदि से आप की पूर्ण भक्ति करेंगे। इस प्रकार तीव्र हार्दिक भावना से युक्त निवेदन ने केशीश्रमण के भावों में परिवर्तन ला दिया। उन्होंने आश्वासन वचन कहे कि जैसा अवसर होगा ध्यान में रखेंगे। यथासमय श्वेतांबिका में केशी श्रमण का पधारना हुआ। चित्त [ 128
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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