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________________ आगम निबंधमाला तथा समझाने की कला से प्रदेशी राजा का मिथ्यात्व अज्ञान का नशा समाप्त हो गया। जिससे वह धर्मप्रेमी, धर्मिष्ठ, बारह व्रतधारी श्रमणोपासक बन गया। पौषध व्रत भी यथासमय करने लगा। राज्य से उसका विरक्त मन अब उदासीन रहने लगा एवं संसार के सुखभोगों में भी उसे अब रस नहीं रहने लगा। जिससे उसका अधिकतम समय धर्माराधना में बीतने लगा / चित्तसारथी (प्रधान) एवं युवराज सूर्यकंतकुमार राज्य संचालन में रस लेते थे। इसलिये व्यवस्था बराबर चलती थी। . राजा का यह धर्ममय जीवन राणी सूरिकंता को अच्छा नहीं लगा। उसे ऐसा आभास होने लगा कि राजा धर्म के पीछे दीवाना (पागल)हो गया है। उसने सूर्यकंतकुमार को बुलाकर प्रस्ताव रखा कि राजा धर्मांध हो गया है, राजकाज और सुखभोग में भी उनका ध्यान नहीं है, तो ऐसे में राजा को शस्त्र प्रयोग आदि किसी भी तरह से मार कर तुम्हारा राज्याभिषेक करना उचित रहेगा। कुमार को ऐसा पितृहत्या का प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा। राणी को भय लगा कि कुमार को यह बात अच्छी नहीं लगी है तो कभी भी राजा को कह देगा। उसने शीघ्र ही कार्य पूर्ण करने का उपाय सोच लिया। राजा के भोजन को विष मिश्रित कर दिया। यहाँ तक कि आसन आदि भी विष संयुक्त कर दिये। यथासमय राजा भोजन करने बैठे। सभी प्रकार के जहर का असर राजा को होने लगा। राजा को समझ में भी आ गया कि आज महाराणी ने सारा जहरमय संयोग बनाया है। धर्ममति से ओतप्रोत राजा ने अपना कर्मोदय और धर्म कर्तव्य सोचा। राणी के प्रति विचारों को उपेक्षित कर दिया। अपनी सावधानी के साथ राजा पौषधशाला में पहुँच गया / विधियुक्त भक्त प्रत्याख्यान संथारा ग्रहण कर लिया अर्थात् 18 पापों का तीन करण, तीन योग से सर्वथा त्याग किया, आहार-पानी का त्याग किया एवं शरीर के प्रति ममत्वभाव हटाकर उसे भी वोसिरा दिया। जहर के प्रकोप से वेदना तीव्र-तीव्रतम होने लगी। राजा आत्मभाव में समभावों में लीन बन गया। राणी के प्रति मन में भी अशुभ विचार नही आने दिये / आयुष्य की डोरी टूटने का समय आ चुका था। श्रावकधर्म की एवं समभावों की अनुपम आराधना कर प्रथम देवलोक | 127
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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