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________________ आगम निबंधमाला देवलोक के उत्तरी निर्याण मार्ग से निकला एवं हजारों (असंख्य) योजन की गति से शीघ्र ही नंदीश्वर द्वीप के रतिकर पर्वत पर पहुँच गया। वहाँ पर उस विमान का संकोच कर लिया गया अर्थात् आमलकप्पा नगरी के बाहर रखा जा सके वैसा छोटा बना लिया। फिर आमलकप्पा नगरी में आकर विमान से भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा की एवं भूमि से चार अंगुल उपर उसे रोक दिया। सूर्याभ देव अपने समस्त देव परिवार सहित भगवान की सेवा में पहुँचा एवं वंदना नमस्कार करके अपना परिचय दिया। तब भगवान ने सूर्याभदेव को संबोधित कर यथोचित शब्दों से उसकी वंदना स्वीकार करते हुए कहा कि यह तुम्हारा कर्तव्य है, धर्म है, आचार है, जीताचार है, करणीय है इत्यादि / सूर्याभदेव भगवान के वचनों को सुनकर अत्यंत हर्षित होता हुआ हाथ जोड़ कर बैठ गया। मनुष्य एवं देवों की उस विशाल परिषद में भगवान ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश एवं परिषद् विसर्जन का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना। निबंध-३६ सूर्याभदेव की भक्ति एवं ऋद्धि धर्मोपदेश समाप्ति और परिषद विसर्जन के बाद भी सूर्याभदेव वहाँ रुका और भगवान से प्रश्न किया कि हे भगवन् ! मैं भवी हूँ या अभवी, सम्यग् दृष्टि हूँ या मिथ्यादृष्टि, परित्त संसारी हूँ या अपरित संसारी, चरमशरीरी हूँ या अचरम शरीरी हूँ ? उत्तर में भगवान ने कहा कि तुम भवी हो, सम्यग् दृष्टि हो और एक भव करके मोक्ष जाने वाले हो / सूर्याभदेव अत्यंत आनंदित हुआ और भगवान से निवेदन किया कि हे भंते ! आप तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, सब कुछ जानते देखते हैं। मेरी दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य देव प्रभाव भी जानते देखते हैं। किन्त भक्तिवश होकर मैं गौतमादि अणगारों को अपनी ऋद्धि एवं बत्तीस प्रकार के नाटक दिखाना चाहता हूँ। इस प्रकार तीन बार निवेदन करने पर भी भगवान ने उसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया, मौन अवस्था में रहे। फिर सर्याभ देव ने भगवान को तीन बार विधियुक्त वंदन नमस्कार किया और मौन स्वीकृति मान कर भगवान के सामने अपनी इच्छानुसार | 124
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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