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________________ आगम निबंधमाला हुए, ऊँचे-नीचे, राग-द्वेषात्मक कोई भी संकल्प-विकल्प नहीं करना, अन्य भी छोटी-बड़ी इन्द्रिय विरोधी कष्ट कर स्थितिएँ, 22 परिषह, देव, मनुष्य, तिर्यंचकृत उपसर्ग आदि को समभाव से स्वीकार कर शांत प्रसन्न रहना इत्यादि मन के एवं तन के प्रतिकूल स्थितियों का प्रतिकार न करते हुए उस अवस्था में ज्ञाता दृष्टा रहकर समभाव रखना। ये सब मन के एवं तन के कष्ट साध्य नियमों को साधक कर्मों से सर्वथा मुक्त होने के लिये ही धारण करता है / निबंध-३५ सूर्याभदेव का मनुष्य लोक में आगमन श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरण करते हुए आमलकप्पा नामक नगरी में पधारे। वहाँ आम्रशाल वन नामक चैत्य में अधिष्ठायक व्यक्ति की आज्ञा लेकर शिष्य मंड़ली सहित ठहरे / वहाँ का श्वेत राजा, अपनी धारणी राणी सहित विशाल जनमेदनी के साथ श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दर्शन करने एवं धर्मोपदेश सुनने के लिये उपस्थित हुआ। भगवान की सेवा में पहुँचने पर उस राजा ने सर्व प्रथम पाँच अभिगम किये अर्थात् श्रावक के योग्य आवश्यक नियमों का आचरण किया एवं भगवान को विधियुक्त वंदन नमस्कार करके बैठ गया। उसके साथ आई हुई जनमेदनी भी धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गई। अलग अलग समूहों से आने वाले लोग भी परिषद में एकत्रित हो गये। सूर्याभदेव की धार्मिकता :- प्रथम देवलोक के सूर्याभ नामक विमान का मालिक सूर्याभदेव अपने चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन प्रकार की परिषद, सौलह हजार आत्मरक्षक देव इत्यादि अपनी विशाल ऋद्धि के साथ दैविक सुखों का अनुभव कर रहा था। उसी समय संयोग वश उसने अवधिज्ञान में उपयोग लग जाने से श्रमण भगवान महावीर स्वामी को आमलकप्पा नगरी में विराजमान देखा / देखते ही परम आनंदित एवं हर्षित हुआ। तत्काल सिंहासन से उतरकर पावों में से पादुका निकाली, मुंह पर उत्तरासंग = दुपट्टा लगाया, दाहिना घुटना दबाकर बाया घुटना ऊँचा करके बैठकर मस्तक को तीन / 12
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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