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________________ आगम निबंधमाला बैठ कर दोनों हाथ जोड़ कर सिद्ध भगवंतों को णमोत्थुणं के पाठ से वदन किया, फिर दूसरी बार णमोत्थुणं के पाठ से श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वंदन किया, तदनंतर अपने धर्मगुरु धर्माचार्य अंबड़ संन्यासी को भावपूर्वक नमस्कार किया। फिर इस प्रकार उच्चारण किया कि पहले हमने अंबड़ परिव्राजक के समीप जीवन भर के लिये स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह का त्याग किया था एवं संपूर्ण कुशील का त्याग किया था। अब हम श्रमण भगवान महावीर के समीप(परोक्ष साक्षी से) संपूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी आदि अठारह पापों का जीवनपर्यंत त्याग करते हैं। चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं और अति प्रिय इस शरीर का भी पूर्ण रूप से त्याग करते हैं। इस प्रकार विस्तृत विधिपूर्वक बड़ी संलेखना के पाठ से पादपोपगमन संथारा आजीवन अनशन धारण कर समाधिपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। यथासमय आयु पूर्ण कर वे सभी 700 शिष्य पाँचवें देवलोक में दस सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न हुए। ये अंबड़ के शिष्य, धर्म के आराधक हुए, क्योंकि उन्होंने परिव्राजक पर्याय में रहते हुए भी निष्पाप निर्वद्य धर्म को समझा था एवं यथाशक्ति श्रावक धर्म धारण भी किया था / अंबड़ संन्यासी, परिव्राजक पर्याय में अकेले ही विचरण करता था। साथ ही श्रावक के बारह व्रतों का पालन भी करता था। बेलेबेले निरंतर तप करने से एवं यथा समय आतापना लेना आदि साधनाओं के पालन करने से उसे वैक्रिय लब्धि एवं अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया था। अपने बल, शक्ति से लोगों को विस्मित आकर्षित करने के लिये वह एक साथ सौ घरों में ठहर जाता, निवास करता एवं सौ घरों में भोजन करता। इस बात के प्रचार से लोगों में चर्चा भी होने लगी। वैसी चर्चा गणधर गौतमस्वामी को भी भिक्षाचरी में सुनने को मिली थी। इस प्रकार विचरण करता हुआ वह अंबड़, निग्रंथ प्रवचन में अटूट श्रद्धा रखता हुआ, श्रावक पर्याय का पालन करता हुआ ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूपेण पालन करता था एवं परिव्राजक पर्याय के नियमों का भी पालन करता था। विशेषता यह है कि- वह आधाकर्मी, उद्देशिक, मिश्र, क्रीत, पूतिकर्म, अध्यवपूर्वक, उधार, अनिसृष्ट, अभिहड़, स्थापित, रचित दोषों से युक्त आहार ग्रहण नहीं करता था, कंतारभक्त, दुर्भिक्ष 120
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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