________________ आगम निबंधमाला विवेक व्यवहारों का भी श्रावक को यथायोग्य ज्ञान अवश्य होना चाहिए / इनका स्पष्टीकरण अन्य निबंध में यथासमय दिया जायेगा। (4) गोचरी के लिये मुनिराज के स्वागत रूप में जो यहाँ वंदन नमस्कार का वर्णन है, उससे तीन बार उठ-बैठकर पंचांग झुका कर वंदन करना नहीं समझ लेना चाहिए। ऐसा करना अविधि एवं अविवेक कहलाएगा / क्यों कि पंचांग नमा कर सविधि वंदना, गोचरी या मार्ग में गमनागमन के समय नहीं किया जाता है / वहाँ तो केवल विनय व्यवहार एवं आदर सत्कार ही अपेक्षित होता है / यहाँ सूत्र में भी हाथ जोड़ कर तीन आवर्तन करके मस्तक झुकाकर मत्थए वंदामि ऐसा दूर से करने का ही आशय रहा हुआ है / मुनिराज को रोकना, तीन बार उठ-बैठ करना या चरण स्पर्श करना आदि विधि यहाँ अपेक्षित नहीं है, ऐसा समझना चाहिये / क्यों कि गोचरी के समय इस प्रकार मुनिराज को रोकना एवं उन्हें विलंब करना अविवेक एवं आशातना रूप होता है / सार- गोचरी एवं मार्ग में मुनिराज का मात्र आवर्तन पूर्वक स्वागत अभिनंदन एवं अभिवादन करना चाहिये / (5) आसन छोड़ना, पगरखी(जूते-चप्पल) खोलना, मुँह के सामने वस्त्र का उत्तरासंग लगाना, ये विनय-वंदन के आवश्यक अंग(अभिगम) है / सुमुख गाथापति आदि ने घर पधारे मुनिराज का विनय करने के लिए भी इन नियमों का पालन किया था। अतः मुनिराजों की सेवा में पहँचना हो तो उत्तरासंग लगाने का कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए। उत्तरासंग लगाये बिना मुनिराज की सेवा में जाना श्रावकाचार के विपरीत आचरण है। ... (6) 1. भाग्यशाली आत्माएँ प्राप्त पुण्य सामग्री में जीवन भर आशक्त नहीं रहती हैं किन्तु एक दिन उससे विरक्त होकर उसका त्याग कर देती है / 2. संयम स्वीकारने का अवसर जब तक न आवे तब तक श्रावक व्रतों को अवश्य धारण कर लेना चाहिए / दसों अध्ययन में वर्णित राजकुमारों ने विपुल भोगमय जीवन के होते हुए भी संपूर्ण बारह व्रत स्वीकार किए थे / वे राजकुमार होते हुए भी महिने के छः पौषध भी धारण करते थे / अंत मे शक्ति रहते संयम | 117