________________ आगम निबंधमाला दुरूपयोग करने वालों, रिश्वतखोरों, प्रजा पर अनुचित कर भार लादने वालों और इस प्रकार के पापों का आचरण करने वालों के भविष्य का यह एक निर्मल दर्पण है। आज के वातावरण में प्रस्तुत अध्ययन और आगे के अध्ययन भी अत्यन्त उपयोगी और शिक्षाप्रद है। (2) पति की आज्ञा से मृगाराणी ने दुःस्सह दुर्गन्ध युक्त उस पापी पुत्र की भी सेवा परिचर्या की थी। वह कर्तव्य निष्ठता एवं पतिपरायणता का अनुपम आदर्श है / (3) पापी अधर्मिष्ट जीव स्वयं दु:खी होता है एवं अन्य को भी दु:खी करता है। जैसे खाद्य-सामग्री में पड़ी मक्खी / (4) सत्ता के नशे में या अपने पुण्यवानी के नशे में व्यक्ति कुछ भी परवाह नहीं करता है / भविष्य का या कर्मबंध का विचार भी नहीं करता है। फिर भी दुःखदायी परिणामों को तो उसे भोगना ही पड़ता है। अतः छोटे बड़े किसी भी प्राणी को मानसिक वाचिक या कायिक कष्ट पहुँचाना स्वयं के लिये दुःख के पहाड़ तैयार करना है / यथा इक्काई राठोड़ के जीव की अमानवीयता एवं सारा घमण्ड अकड़ाई आदि मृगा- लोढ़े के दुःखमय जीवन में और अनेक दुःखी भवों के रूप में परिवर्तित हो गए। (5) मृगाराणी धर्मनिष्ठ थी किन्तु भगवान का सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने का पूर्ण परिचय उसे नहीं हुआ था। (6) सौंदर्यपूर्ण दृश्यों को देखने की आसक्ति साधु के लिये अकल्पनीय है। किन्तु गंभीर ज्ञान, अनुप्रेक्षा, अन्वेषण आदि हेतु से जानने देखने की जिज्ञासा होना अलग वस्तु है / दोनों को एक नहीं कर देना चाहिये / पुद्गलानंदी एवं इन्द्रियाशक्ति से साधु को बचना चाहिए / किन्तु गंभीर ज्ञान एवं अनुप्रेक्षा के माध्यम के लिए बहुश्रुत एवं गीतार्थ के निर्णय एवं निर्देशानुसार किया जा सकता है। यथागौतमस्वामी आज्ञा लेकर मृगापुत्र(मृगा लोढ़) को देखने अकेले ही राणी के साथ भोयरे में गये / (7) परवशपन से जीव कैसे विभत्स दारूण कष्ट सहन कर लेता है / यह जानकर जो व्यक्ति स्ववश ज्ञान एवं वैराग्य से तप व संयम के नगण्य कष्टों को सहन कर ले, वह सदा के लिए जन्म मरण रूपी दुःख संकट के सांसारिक चक्कर से छूट जाता है। (8) राजपुत्र मृगालोढा मानवभव प्राप्त करके भी हीनांग था, उसके कोई भी अंग स्वतंत्र स्पष्ट नहीं थे अर्थात् आँख, नाक,कान,हाथ-पाँव नहीं थे, केवल शरीर और मुख था बाकी चिन्ह मात्र थे। / 107