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________________ 66 वर्ण, जाति और धर्म खण्डोंमें केवली जिन, चारणऋद्धिधारी मुनि, विद्याधर और देव जाँय और धर्मोपदेश देकर धर्मकी प्रवृत्ति करें इसमें आगमसे कोई बाधा नहीं आती। ___ इस प्रकार आगम और युक्तिसे यह सिद्ध हो. जाने पर कि पन्द्रह कर्मभूमियोंके पाँच म्लेच्छ खण्डोंमें भी आर्य खण्डके समान धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति होती है, हमें इसके प्रकाशमें कषायप्राभूतचूर्णिमें संयमके प्रसङ्गसे आये हुए कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज शब्दोंके अर्थ पर विचार करना है / यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि यह संयम ( मुनिधर्म ) का प्रकरण है और संयमको कर्मभूमिज मनुष्य ही धारण कर सकते हैं, इसलिए प्रकृतमें 'कर्मभूमिज' शब्दका अर्थ होता है पन्द्रह 'कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य / अब रहा अकर्मभूमिज शब्द सो उसका शब्दार्थ तो भोगभूमिज मनुष्य ही होता है। पर भोगभूमिज मनुष्यका प्राकृतिक जीवन सुनिश्चित है / इस कारण उनका संयमासंयम और संयमको धारण करना किसी भी अवस्थामें नहीं बनता, इसलिए प्रकृतमें 'अकर्मभूमिज' शब्दका कोई दूसरा अर्थ होना चाहिए। हमने इसपर पर्याप्त विचार किया है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि ढाईद्वीपके पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रोंमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणोके अनुसार छह कालोंका परिवर्तन होता रहता है / तात्पर्य यह है कि वहाँ पर कभी भोगभूमिकी और कभी कर्मभूमिकी प्रवृत्ति चालू रहती है। जब भोगभूमिकी प्रवृत्ति चालू रहती है तब वहाँ के सब मनुष्योंका आहार-विहार, आयु और काय भोगभूमिके अनुसार होता है और जन कर्मभूमिकी प्रवृत्ति चालू रहती है तब वहाँ के सब मनुष्योंका आहार-विहार, आयु और काय कर्मभूमिके अनुसार होता है। परन्तु इन दोनोंके सन्धिकालमें स्थिति कुछ भिन्न होती है। अर्थात् भोगभूमिका काल शेष रहने पर भी कर्मभूमिकी प्रवृत्ति चालू हो जाती है या कर्मभूमिका काल शेष रहने पर भी भोगभूमिके लक्षण दिखलाई देने लगते हैं। इसके लिए वर्तमान अव सर्पिणीका तीसरा काल उदाहरणरूपमें उपस्थित करना अनुचित न होगा।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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