________________ - नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 17 इसके अन्तिम भागमें जब लाखों करोड़ों वर्ष शेष थे तब आदि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव हुए थे। उन्होंने अपनी गृहस्थ अवस्थामें आजीविकाके छह कर्मोंका उपदेश दिया था और अन्तमें मुनिधर्म स्वीकार कर केवलज्ञान होने पर मोक्षमार्गका भी उपदेश दिया था। यदि कालकी दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह अकर्मभूमिसम्बन्धी ही काल ठहरता है / परन्तु ऐसा होते हुए भी इसमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति चालू हो गई थी। बहुत सम्भव है कि ऐसे मनुष्योंको लक्ष्यमें रखकर ही आचार्य यतिवृषभने कषायप्राभृतचूर्णिमें अकर्मभूमिज मनुष्योंमें संयमके प्रतिपद्यमान स्थानोंका निर्देश किया है। ____ एक तो कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज शब्दोंका अर्थ आर्य और म्लेच्छ आचार्य जिनसेनने किया है। और कदाचित् यह मान भी लिया जाय कि इन शब्दोंका यह अर्थ आचार्य यतिवृषभको भी मान्य रहा है तो भी यह दिखलानेके लिए कि इन दोनों प्रकारके मनुष्योंमें संयम ग्रहण करनेकी पात्रता है उन्होंने कर्मभूमिज मनुष्योंके हो कर्मभूमिज ( आर्य) और अकर्मभूमिज ( म्लेच्छ ) ये भेद करके उनमें संयमके प्रतिपद्यमान स्थानोंका निर्देश किया है / तथापि यदि यहाँपर दूसरे अर्थको ही प्रमुखरूपसे ग्राह्य माना जाता है तो भी उसके आधारसे आचार्य जिनसेनने जो यह अर्थ किया है कि 'जो पाँच खण्डके म्लेच्छ राजा दिशा दिग्विजयके समय चक्रवर्ती के स्कन्धावारके साथ मध्यके खण्डमें आकर चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं उन्हें संयम धारण करने में कोई बाधा नहीं आती। अथवा जो म्लेच्छ राजाओंकी कन्यायें चक्रवर्ती आदिके साथ विवाही जाती हैं उनके गर्भसे उत्पन्न हुए बालक मातृपक्षकी अपेक्षा अकर्मभूमिज होनेसे उन्हें संयम धारण करनेमें कोई बाधा नहीं आती।' वह ठोक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि जैसा कि हम पहले बतला आये है कि म्लेच्छखण्डोंमें भी धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति माननेमें आगमसे कोई बाधा नहीं आती है / इस पूरे प्रकरणका संक्षेपमें सार यह है कि