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________________ - नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 85 जम्बूद्वीपमें कुल क्षेत्र सात हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत / इनमेंसे विदेहके तीन भाग हो जाते हैं। मेरुके दक्षिण और उत्तरका भाग क्रमसे देवकुरु और उत्तरकुरु कहलाता है। तथा पूर्व और पश्चिमके भागको विदेह कहते हैं। इसप्रकार जम्बूद्वीपमें कुल नौ क्षेत्र हैं / धातकीखण्ड और पुष्कराध द्वीपमें इन क्षेत्रोंकी संख्या दूनी है। ये ढाई द्वीपके कुल पेंतालीस क्षेत्र होते हैं / इनमें से पाँच भरत, पाँच विदेह और पाँच ऐरावत ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं और शेष तीस क्षेत्र अकर्मभूमियाँ हैं / कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्य क्रमसे इन्हीं क्षेत्रोंमें उत्पन्न होते हैं / यहाँ यह स्मरणीय है कि भरत और ऐरावत क्षेत्रमें कालका परिवर्तन होता रहता है। कभी वहाँ पर कर्मभूमिका प्रवर्तन होता है और कभी अकर्मभूमिका / वहाँ जिस समय जो काल प्रवर्तता है उसके अनुसार वहाँ पर कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्यों और तिर्यञ्चोंकी उत्पत्ति होती है। प्रसङ्गसे यहाँ पर इस बातका उल्लेख कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि लवणसमुद्र और कालोदधिसमुद्रमें कुछ अन्तर्वीप है। उनमें भी मनुष्य उत्पन्न होते हैं। किन्तु अन्तर्वीपोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य अकर्मभूमिज ही होते हैं / - उत्तरकालीन अन्य जितना जैन साहित्य उपलब्ध होता है उसमें तिर्यञ्चों और मनुष्योंके इन भेदोंको इसी रूपमें स्वीकार किया गया है / अन्तर केवल इतना है कि वहाँ पर अकर्मभूमि शब्दके स्थानमें भोगभूमि शब्दका बहुलतासे प्रयोग हुआ है। इतना अवश्य है कि षट खण्डागम कालविधान अनुयोगद्वारके उक्त उल्लेखके सिवा अन्यत्र नारकियों और देवोंको अकर्मभूमिज नहीं कहा गया है। इनमें कर्मभूमिज भेदका न पाया जाना ही इसका कारण है / कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और कर्मभूमिप्रतिभाग संज्ञा किनकी है इसका व्याख्यान धवलाकारने इन शब्दोंमें किया . है-'पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव दो प्रकारके हैं-कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज / उनमें से अकर्मभूमिज जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं करते /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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