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________________ 84 - वर्ण, जाति और धर्म और उनसे प्रतिबद्ध तत्सम व्यवस्थावाले क्षेत्रसे बाहर उत्पन्न होनेवाले / षटखण्डागमके अनुसार ढाई द्वीप और दो समुद्रोंके मध्य पन्द्रह कर्मभूमियोंमें तथा कषायप्राभृतके अनुसार कर्मभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्योंको क्षायिक सम्यग्दर्शनका प्रस्थापक कहा गया है। इससे विदित होता है कि ढाई द्वीपं और दो समुद्रोंके अन्तर्गत पन्द्रह कर्मभूमियोमें जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं बे कर्मभूमिज मनुष्य कहलाते हैं। : यह तो स्पष्ट है कि क्षेत्रकी दृष्टि से लोक दो भागोंमें विभक्त है / देवलोक, . नरकलोक और मध्यलोकका भोगभूमिसम्बन्धी क्षेत्र अकर्मभूमि है। तथा मध्यलोकका शेष प्रदेश कर्मभूमि है। कर्मभूमि और अकर्मभूमिकी व्याख्या यह है कि जहाँ पर आजीविकाके साधन जुटाने पड़ते हैं तथा सप्तम नरकके योग्य पापबन्ध या सर्वार्थसिद्धिके योग्य पुण्यबन्ध या दोनों सम्भव हैं उसे कर्मभूमि कहते हैं और जहाँ पर आजीविकाके साधन नहीं जुटाने पड़ते तथा उनके निमित्तसे छीनाझपटी भी नहीं होती उसे अकर्मभूमि कहते हैं। षटखण्डागम वेदना कालविधान अनुयोगद्वारके आठवें सूत्रमें कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदनाका निर्देश करते हुए सूत्रकारने 'कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, और कर्मभूमिप्रतिभाग' शब्दोंका प्रयोग किया है। साथ ही उनकी व्याप्ति नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके साथ बिठलाई है। इससे उक्त अर्थका ही बोध होता है। संक्षेपमें उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि सात नरकभूमियोंमें उत्पन्न हुए नारकी, मध्यलोकके अकर्मभूमि (भोगभूमि ) क्षेत्रमें उत्पन्न हुए सभी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च और मनुष्य तथा चारों निकायोंके देव ये अकर्मभूमिज हैं। तथा मध्य लोकके शेष क्षेत्रमें उत्पन्न हुए तिर्यञ्च और मनुष्य कर्मभूमिज हैं। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि मनुष्य ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्योंका विचार इस क्षेत्रको ध्यान में रखकर ही करना चाहिए / विवरण इसप्रकार है--
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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