SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ण, जाति और धर्म बन्ध निर्ग्रन्थके ही होता है और द्रव्यस्त्री निर्ग्रन्थ हो नहीं सकती, क्योंकि द्रव्यस्त्री और द्रव्यनपुंसक वस्त्रादिका त्यागकर निम्रन्थ नहीं हो सकते ऐसा छेदसूत्रका वचन है। इससे स्पष्ट है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेदसे भावस्त्रीका ही ग्रहण हुआ है। इस प्रकार सब प्रकारसे विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि सिद्धान्त प्रन्थोंमें चौदह मार्गणाओंका विचार नोआगमभावरूप पर्यायकी दृष्टिसे ही किया गया है। उनमें मनुष्यजातिके भवान्तर भेद तो गर्भित हैं ही। . धर्माधर्म विचार नोआगमभाव मनुष्योंके ये अवान्तर. भेद हैं। इनमें धर्माधर्मका विचार करते हुए षटखण्डागममें बतलाया है कि सामान्यसे मनुष्य चौदह गुणस्थानोंमें विभक्त हैं-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक, अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपकं, सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक, उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ,. सयोगिकेवली और अयोगिकेवली / सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी इनमें ये चौदह ही गुणस्थान होते हैं। किन्तु मनुष्य अपर्याप्तकोंमें एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। ये सब मनुष्य ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें पाये जाते हैं / किन्तु भोगभूमिके मनुष्य इसके अपवाद हैं, क्योंकि उनमें संयमासंयम और संयमकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे केवल प्रारम्भके चार गुणस्थान ही होते हैं। कारणका निर्देश हम पिछले एक प्रकरणमें कर आये हैं। षट्खण्डागममें प्रतिपादित इन चौदह गुणस्थानोंको मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पकचारित्र इन छह भागोंमें विभाजित किया जा सकता है। प्रारम्भके दो गुणस्थान
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy