________________ - नोभागमभाव मप्नुयोंमें धर्माधर्ममीमांसा. .. जीवका अन्य जीवसे पार्थक्य दिखलाना आवश्यक है, इसलिए नौवें गुणस्थानमें स्त्रीवेद गुणके नष्ट हो जानेपर भी आगे उस शब्दका गतिके आश्रयसे व्यवहार होता रहता है। लोकमें पुजारी और प्रोफेसर आदि जो संज्ञाएँ गुण या कर्मके आश्रयसे प्रवृत्त होती हैं उनमें भी इस प्रकारका व्यवहार देखा जाता है। अर्थात् वह व्यक्ति पूजा आदि उस कर्मका त्याग भी कर देता है तो भी उस व्यक्तिके आश्रयसे पुजारी आदि शब्दकी प्रवृत्ति होती रहती है। नौवें गुणस्थानके आगे मनुष्यिनी शब्दके प्रयोगमें भी यही दृष्टि सामने रही है। यही कारण है कि यहाँपर मनुष्यिनीके चौदह गुणस्थानोंका सद्भाव बतलाया गया है। दूसरा स्थल वेदनाकालविधानके 12 वें सूत्रकी टीका है। यहाँ पर सिद्धान्त ग्रन्थों में स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भाववेद है, द्रव्य स्त्रीवेद नहीं है इस अभिप्रायको दो प्रमाण देकर स्पष्ट किया गया है। यहाँ वेदनाकाल विधानके इस सूत्रमें अन्य वेदवालोंके साथ स्त्रीवेदी जीव भी नारकियों और देवोंसम्बन्धी तेतीस सागर आयुका बन्ध करते हैं यह कहा गया है। इस पर यह जिज्ञासा हुई कि यहाँ पर स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ क्या लिया गया है-भावास्त्रीवेद या द्रव्यस्त्रीवेद / वीरसेनस्वामीने एक अन्य प्रमाण देकर इस जिज्ञासाका समाधान किया है। अन्य प्रमाणमें स्त्रियों (द्रव्यस्त्रियों) का छटी पृथिवीतक मरकर जाना बतलाया है। किन्तु इस सूत्रमें स्त्रीवेदीके तेतीस सागरआयुके बन्धका विधान किया है। इस परसे वीरसेन स्वामीने यह फलित किया है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भावस्त्रीवेद ही विवक्षित है / यदि ऐसा न होता तो यहाँ पर इस सूत्रमें सूत्रकार अधिकसे अधिक बाईस सागर आयुके बन्धका ही विधान करते, क्योंकि द्रव्यस्त्री छटे नरकसे आगे नहीं जाती और छटे नरकमें उत्कृष्ट आयु बाईस सागर होती है / कदाचित् यह कहा जाय कि देवोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धकी अपेक्षा यहाँ पर स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ द्रव्यस्त्रीवेद लिया जावे तो क्या हानि है / परन्तु यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि देवों सम्बन्धी उत्कृष्ट आयुका