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________________ . नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप होते हैं। तीसरा गुणस्थान मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इनके मिश्ररूप होता है तथा चारित्रकी अपेक्षा वहाँ एक असंयमभाव होता है। आगेके सब गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो सर्वत्र होता है। परन्तु चारित्रकी अपेक्षा चौथेमें असंयमभाव, पाँचवें गुणस्थानमें संयमासंयमभाव (श्रावकधर्म ) और छटे आदि गुणस्थानोंमें संयमभाव ( मुनिधर्म ) होता है / पहले मनुष्योंके जिन तीन भेदोंमें चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्तिका निर्देश किया है उन सबमें पूर्ण मुनिधर्म तककी प्राप्ति सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मात्र भोगभूमिके उक्त तीन प्रकारके मनुष्य इसके अपवाद हैं, क्योंकि उनमें गृहस्थधर्म और मुनिधर्मकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। - कषायप्राभृत भी मूल आगमसाहित्य है। इस दृष्टि से षटखण्डागम और कषायप्राभृतके अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं है। इन दोनों ग्रन्थोंमें बतलाया है कि दर्शनमोहनीय (सम्यक्त्वका घात करनेवाला ) कर्मका उपशम होकर चारों गतियोंमें पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त जीवके उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है / यह सब नरकोंमें, सब भवनवासी देवोंमें, सब द्वीप और सब समुद्रोंमें अर्थात् मध्यलोकमें रहनेवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें, व्यन्तर देवोंमें, भवनवासी देवोंमें, सौधर्म कल्पसे लेकर नौग्रैवेयक तकके सब विमानवासी देवोंमें, वाहन आदि कर्ममें नियुक्त आभियोग्य जातिके देवोंमें तथा किल्विषक देवोंमें इस प्रकार सर्वत्र उत्पन्न होता है। उत्पन्न होनेके बाद यह अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। उसके बाद यदि मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है तो यह जीव पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है। परिणामोंकी बड़ी विचित्रता है। जिस सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिए चिरकाल तक अभ्यास किया वह क्षणमात्रमें विलीन हो जाता है। वेदकसम्यक्त्वकी प्रांति भी चारों गतियोंमें होती है। इसका भी ठहरनेका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है / इस सम्यक्त्ववाला भी अपने सम्यक्त्वरूप परिणामोंसे च्युत
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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